सोमवार, 25 अक्तूबर 2010

अर्जुन सेनगुप्ता - एक मानवतावादी विचारक का अवसान

अर्जुन सेन गुप्ता
एक मानवतावादी विचारक का अवसान

जाने-माने विकास अर्थशास्त्री अर्जुन सेनगुप्ता का पिछले दिनों दिल्ली के अखिल भारतीय आर्युविज्ञान संस्थान में देहान्त हो गया। वह कुछ समय से प्रोटेस्टेंट कैंसर से पीड़ित थे। अपने लंबे और सक्रिय जीवन में उन्हें एक शिक्षाविद, आर्थिक प्रशासक, ब्यूरोक्रेट, संसद सदस्य तथा कूटनीतिज्ञ के रूप में पर्याप्त सम्मान मिला।

10 जून, 1937 को कलकत्ता के एक उच्चशिक्षित मध्यवर्गीय संयुक्त परिवार में जन्मे श्री सेनगुप्ता वैसे तो शैक्षणिक तथा प्रशासनिक, दोनों क्षेत्रों में उच्च पदों पर रहे लेकिन असंगठित क्षेत्र के कामगारों पर बने राष्ट्रीय आयोग के अध्यक्ष के रूप में वर्ष 2004 में प्रस्तुत की गयी उनकी रिपोर्ट से उन्हें सबसे ज़्यादा ख्याति मिली। इस रिपोर्ट में एन एस एस की तमाम रिपोर्टों के विस्तृत विश्लेषण द्वारा उन्होंने यह निष्कर्ष दिया था कि देश के लगभग 70 प्रतिशत अर्थात लगभग 83.6 करोड़ लोग आज भी 20 रुपये रोज़ से कम में गुजारा करते हैं। उन्होंने इस रिपोर्ट में यह तर्क दिया था कि बिना इन लोगों की दशा सुधारे केवल लाभों को अधिकतम संभव करना किसी आर्थिक संवृद्धि का लक्ष्य नहीं होना चाहिये। उन्होंने यह भी लक्षित किया था कि गरीबी मिटाने के लिये जो विशाल धनराशि आवंटित की जाती है, उसका बड़ा हिस्सा सबसे ग़रीब लोगों तक पहुंच ही नहीं पाता, इसीलिये उनके सम्यक विकास के लिये विशेष लक्षित कार्यक्रमों और योजनाओं की ज़रूरत है। इस आयोग की अनुशंसा के चलते न केवल 2008 में असंगठित क्षेत्र सामाजिक सुरक्षा कानून बना, बल्कि बाद में ग़रीबी रेखा को लेकर चली बहस में भी इसकी बेहद अहम भूमिका रही। संसद के भीतर तथा बाहर भूमण्डलीकरण के समर्थकों के विकास के दावे को बेपर्द करने वाला यह आंकड़ा किसी सूत्र वाक्य की तरह प्रचलित हुआ। 

मृत्यु के समय वह राज्यसभा के सदस्य थे जहां वह अगस्त 2005 में चुने गये थे। वैसे प्रेसीडेंसी कालेज़, कलकत्ता से परास्नातक और मैसाच्यूट्स इंस्टीट्यूट आफ़ टेक्नालजी से अर्थशास्त्र में पी एच डी करने के बाद उन्होंने थोड़े समय के लिये लंदन स्कूल आफ इकानामिक्स और दिल्ली स्कूल आफ इकानामिक्स में अध्यापन भी किया था। इसके बाद उन्होंने 1981 से 1984 तक पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के विशेष सचिव (आर्थिक सलाहकार) पद पर कार्य किया। वह 1985 से 1990 तक विश्व बैंक के कार्यकारी निदेशक और बैंक के प्रबंध निदेशक के आर्थिक सलाहकार, तथा 1990 से 1993 तक यूरोपीय यूनियन में भारत के राजदूत रहे। इसके बाद वह 1993 से 1998 तक योजना आयोग के सदस्य सचिव रहे। राज्यसभा सदस्य रहते हुए वह संयुक्त राष्ट्र के विकास के अधिकार पर बने आयोग में भी स्वतंत्र विशेषज्ञ के रूप में सक्रिय थे। वहां उन्होंने गरीबी तथा मानवाधिकार हनन को पूर्णतः राष्ट्रीय अवधारणा की जगह एक वैश्विक समस्या के रूप में निरूपित किया था, और यह निष्कर्ष दिया था कि दुनिया भर के वंचित लोगों की भी दुनिया की संपदा तथा संसाधनों में न्यायसंगत हिस्सेदारी है ।

परंतु यहां हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि वह 90 के दशक में शुरु किये गये सुधारों के विरोधी नहीं थे बल्कि उन्होंने 1980 के दशक में सरकारी उद्यमों के आर्थिक सुधार पर बने एक आयोग के अध्यक्ष के रूप में इन सुधारों की पूर्वपीठिका तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। आर्थिक सुधारों के आरंभिक दौर में वह विश्व बैंक के प्रबंध निदेशक के आर्थिक सलाहकार थे। दरअसल, वह नेहरु युग के उन मानवतावादी आर्थिक विचारकों में से थे जिनका मानना था कि एक पूंजीवादी व्यवस्था के भीतर भी सरकारी हस्तक्षेप तथा कल्याणकारी कार्यक्रमों द्वारा वंचित आबादी को यथेष्ट न्याय दिलाया जा सकता है। ऊपर उद्धृत रिपोर्ट में भी उन्होंने स्पष्ट किया है कि वह बाज़ार अर्थव्यवस्था या उदारीकरण के विरोधी नहीं लेकिन वंचित वर्गों को सरकार द्वारा सामाजिक सुरक्षा उपलब्ध करानी ही चाहिये। इसे एक विडंबना ही कहा जायेगा कि नव उदारवाद की जिन नीतियों के निर्माण में उनकी भूमिका रही, उन्हीं के कोख से उपजी भयावह वंचना को रेखांकित करने वाली रिपोर्ट ही अंततः उनके जीवन के सबसे महत्वपूर्ण योगदान के रूप में रेखांकित हुई। 

3 टिप्‍पणियां:

सहज समाधि आश्रम ने कहा…

आपको नववर्ष 2011 मंगलमय हो ।
जबाब नहीं निसंदेह ।
यह एक प्रसंशनीय प्रस्तुति है ।
धन्यवाद ।
satguru-satykikhoj.blogspot.com

G.N.SHAW ने कहा…

very sad news. bhagawan unake atma ko shanti de...

बेनामी ने कहा…

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