एक आर्थिक सर्वसत्ता वाद गोलियों से नहीं वरन अकालों से हत्या करता है।
मिशेल चोसडुवस्की , ग्लोबलाईजेशन आफ़ पावर्टी में
आज़ादी के बाद तमाम असफलताओं के बीच जिस एक सफलता को लेकर आश्वस्त हुआ जा सकता था वह यह थी कि भारत में अकाल पर लगभग पूरी तरह नियंत्रण पा लिया गया। अपनी स्पष्ट पूंजीवादी प्रवृति तथा क्षेत्रीय और फ़सली पूर्वाग्रहों के बावज़ूद हरित क्रांति के देश को खाद्यान्नों के मामले में आत्मनिर्भर बनाने के महत्वपूर्ण योगदान को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। इस प्रक्रिया में जहां एक तरफ़ खाद्यान्न उपलब्धता बढ़ी वहीं दूसरी तरफ़ सर्वसुलभ लोक वितरण प्रणाली (पी डी एस) के चलते लोगों को पूरे साल अपने गावों और कस्बों के क़रीब अनाज़ और दूसरी ज़रूरी चीज़ें उचित मूल्य पर उपलब्ध होने से देश के बड़े हिस्से में भूखमरी पर काबू पाया गया। कुछ आज़ादी की लड़ाई के हैंगओवर और कुछ देश के भीतर तथा बाहर पूंजीवाद विरोधी शक्तियों की प्रभावी उपस्थिति के कारण गांव, कृषि और गरीब सरकारों के एज़ेण्डे पर चाहे.अनचाहे हमेशा उपस्थित रहे। राजकीय पूंजीवाद के पब्लिक सेक्टर माडल के तहत कृषि लागतों तथा उत्पादों पर विभिन्न संरक्षण तथा सब्सीडियां उपलब्ध कराई गयीं। हालांकि यहां यह ज़िक्र करना भी बेहद ज़रूरी है कि इनमें से अधिकांश से लाभान्वित होने वाले बड़े किसान ही रहे, भूमि सुधारों को लागू न किये जाने से ग्रामीण अर्थव्यवस्था में विषमता के आधारों में लगातार विस्तार हुआ और देश की व्यापक कृषि आबादी, जिनमें बड़ा हिस्सा भूमिहीन मज़दूरों के रूप में काम करने वाले दलितों और आदिवासियों का था, निरंतर सीमांत पर ही रही, शहर केन्द्रित औद्योगिक विकास के कारण गावों से बड़ी मात्रा में शहर आये लोगों के चलते हुई जनसंख्या वृद्धि के बरअक्स सुविधाओं में विस्तार न होने के कारण वहां झुग्गी-झोपड़ियों के रूप में ‘मानवता के जीवित नरकों’ में लाखों लोग न्यूनतम सुविधाओं के बिना रहने को मज़बूर हुए और ‘भूखमरी की रेखा’ के रूप में परिभाषित ग़रीबी रेखा के बावज़ूद जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा इस रेखा के नीचे ही रहा (दूसरे शब्दों में एक बड़ी आबादी दो जून के भोजन से भी वंचित रही।)
लेकिन नब्बे के दशक में ‘संरचनात्मक संयोजन’ वाली उदारीकरण के नाम से लागू नव साम्राज्यवादी नीतियों के लागू होने के बाद यह परिदृश्य भी पूरी तरह से बदल गया और इस वंचित तबके की चिन्तायें नीति निर्माताओं के एज़ेण्डे से पूरी तरह बाहर हो गयीं। इन नीतियों के तहत इस सिद्धांत को स्वीकार कर लिया गया कि सारे आर्थिक निर्णय बाज़ार की ताक़तों के भरोसे ही लिये जाने चाहिये। परिणाम यह हुआ कि समाज के वंचित तबके को दी जाने वाली सुविधायें एक-एक करके छीन ली गयीं और कार्यरूप में पहले से ही अनुपस्थित ‘समानता’ का विचार सिद्धांत रूप में भी तिरोहित कर दिया गया। इनके परिणाम भी फौरन ही दिखाई देने लगे। 1991 में इन नीतियों के लागू होने के तुरत बाद रसायनिक खाद की क़ीमतों में 40 फ़ीसदी की वृद्धि हो गयी, जुलाई 1991 में गेहूं और धान की क़ीमतों में 50 प्रतिशत की वृद्धि हुई, रोज़गारों में गिरावट आई, संगठित क्षेत्र की मज़दूरी की दर में कमी आई और भूख से होने वाली मौतों में वृद्धि हो गयी। (देखें चोसुडेवस्की की पूर्वोद्धृत पुस्तक का भारत संबधी अध्याय)
वैसे यह परिघटना केवल भारत तक ही सीमित नहीं थी। दुनिया में जहां.जहां ये नीतियां लागू की गयीं ऐसे ही परिणाम सामने आये। 1990 के पूर्व खाद्यान्नों के मामले में आत्मनिर्भर रवांडा में इन नीतियों के लागू होने के बाद अकाल का शिकार हुआ। इथोपिया, सोमालिया, कीनिया और अन्य सब सहारा देशों में सरंचनात्मक समायोजन (सैप) की इन नीतियों के चलते अकाल और अराजकता के अंतहीन दौर की शुरुआत हुई, लैटिन अमेरिकी देशों में रोज़गारों और वास्तविक मज़दूरी दर में भारी गिरावट आई, वियतनाम की अर्थव्यवस्था तबाह हो गयी और अकाल जैसे हालात पैदा हुए, ब्राजील की ग्रामीण अर्थव्यवस्था तहस-नहस हो गयी, पेरु में तो इन नीतियों की घोषणा के एक दिन में ईंधनों की क़ीमत 2,968 प्रतिशत और रोटी की क़ीमत 1150 प्रतिशत बढ़ गई और औसत वेतन में भारी गिरावट हुई जिसके फलस्वरूप कुपोषण, भुखमरी और बाल मृत्यु दर के आंकड़ों में भयावह इज़ाफ़ा हुआ, बांगलादेश, बोलीविया, पूर्व सोवियत संघ के तमाम संघटकों, पाकिस्तान और बांग्लादेश सहित कोई भी देश इन भयावह परिणामों से सुरक्षित नहीं रह सका। (देखें वही)
भारत में भी इनका प्रभाव पूर्व में उद्धृत आंकड़ो तक ही सीमित नहीं रहा। कृषि अर्थव्यवस्था पर इसके दुष्प्रभावों की सबसे भयावह परिणिति लाखों किसानों की आत्महत्या के रूप में हुई जिससे आज सब परिचित हैं। 1991 के बाद देश के भीतर खाद्यान्न उपलब्धता लगातार घटती चली गई। एनएसएस के आंकड़ो के अनुसार 1991 में प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन 510 ग्राम अनाज़ उपलब्ध था जो 2004 आते आते केवल 463 ग्राम रह गया। आज वर्तमान विश्व औसत 309 किलोग्राम की तुलना में भारत में प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष खाद्यान्न उपलब्धता है मात्र 155 किलोग्राम। इसका स्वाभाविक परिणाम भुख से मरने वाले तथा कुपोषित लोगों की संख्या में भारी वृद्धि के रूप में हमारे सामने आया है। संयुक्त राष्ट्र की आर्थिक एवं सामाजिक समिति की 20 मार्च 2006 को प्रस्तुत रिपोर्ट में भोजन के अधिकार संबंधी विशेष अधिकारी ज्यां ज़ेगलर ने लिखा है कि पिछले वर्षों में खाद्यान्न उत्पादन की विकास दर जनसंख्या की विकास दर से तेज़ रही है, इसलिये राष्ट्रीय स्तर पर भारत एक अरब से अधिक की अपनी जनसंख्या को भोजन उपलब्ध कराने में सक्षम है। फिर भी इन प्रभावशाली उपलब्धियों के बावज़ूद भारत पारिवारिक स्तर पर खाद्यान्न सुरक्षा उपलब्ध कराने में असफल रहा है। कुपोषण तथा गरीबी का स्तर बहुत ऊंचा है और इस बात के पर्याप्त संकेत हैं कि 1990 के उत्तरार्ध में ग़रीबी और खाद्यान्न असुरक्षा में काफ़ी वृद्धि हुई है। ( पेज़ 5)
इस रिपोर्ट के अनुसार हर साल देश में बीस लाख बच्चे गंभीर कुपोषण और इलाज़ की जा सकने वाली बीमारियों की वज़ह से मर जाते हैं ( यानि इलाज़ की समुचित व्यवस्था न होने से)। बच्चों की संख्या के आधे से अधिक बच्चे गंभीर कुपोषण के शिकार हैं, कुल 47 प्रतिशत का वज़न औसत से कम है और 46 प्रतिशत की लंबाई। यह आंकड़ा दुनिया में सबसे ज़्यादा ऊंचे स्तर का है, ज़्यादातर सब सहारा देशों से भी बुरा। दुनिया के कुल कम वज़न वाले बच्चों में 42 प्रतिशत भारत में है। तीस प्रतिशत बच्चे पैदा होते समय ही कम वज़न के होते हैं जिसका अर्थ है कि उनकी मातायें भी कुपोषित होती हैं। बचपन के आरंभिक दौर में ही बच्चे कुपोषण का शिकार हो जाते हैं और बालिकाओं में यह प्रवृति अपेक्षाकृत ज़्यादा है जो समाज में औरतों के साथ होने वाले भेदभाव का स्पष्ट परिचायक है। रिपोर्ट के अनुसार अस्सी प्रतिशत लड़कियांए कन्या शिशु और औरतें कुपोषण का शिकार हैं।
इस रिपोर्ट के अनुसार बीस करोड़ से अधिक महिलायें, बच्चे और पुरुष दो जून की न्यूनतम आवश्यक भोजन आवश्यकतायें भी पूरी नहीं कर पाते। अपनी आय का सत्तर प्रतिशत भोजन पर ख़र्च करने के बावज़ूद इन्हें भारत सरकार द्वारा आवश्यक निर्धारित 1700 कैलोरी उर्ज़ा भी नहीं जुट पाती, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित 2100 कैलोरी की तो बात ही क्या है। देश में औसत कैलोरी उपभोग भी घटा है लेकिन यह जहां नई आर्थिक नीतियों के बाद उच्च आय वर्ग तथा मध्यम वर्ग की खाद्य आदतों में परिवर्तन का परिचायक है वहीं गरीब जनता की बढ़ती हुई बदहाली का। ग्रामीण क्षेत्रों में पिछले एक दशक में जहां अनाज़ों का उपभोग 2 14 प्रतिशत घट गया उनका कुल कैलोरी उपभोग 1 53 प्रतिशत कम हो गया, जिसका अर्थ है कि वे वास्तव में अलग-अलग तरह की चीज़ें खाने की जगह कम अनाज़ खा रहे हैं। ख़ासतौर पर यह इस तथ्य की रौशनी में और साफ़ हो जाता है कि नब्बे के दशक में खाद्यान्नों की कीमतों में वास्तविक मज़दूरी दर की तुलना में तीव्र वृद्धि हुई है ( वही पेज़ 6)
यह रिपोर्ट इस तथ्य की ओर भी पर्याप्त संकेत करती है कि गरीबी के आंकड़े में जिस कमी का दावा सरकार कर रही है वह दरअसल आंकड़ों की कलाबाजी है। साथ ही नई आर्थिक नीतियों के फलस्वरूप देश के भीतर आर्थिक असमानता की खाई भी और ज़्यादा गहरी हुई है। गावों के भीतर इन नीतियों के लागू होने के बाद ज़मीन की मिल्कियत लगातार कुछ हाथों में सिमटती गई है जिससे भूमिहीन श्रमिकों की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई है। देश के भीतर आज ग्रामीण आबादी का 47 प्रतिशत ऐसे ही श्रमिकों का है। शहरी क्षेत्रों में भी श्रम नियमों में ढील के फलस्वरूप भारी संख्या में लोग बेरोज़गार हुए हैं और सुरक्षित रोज़गारों में कमी आई है। अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में चाय की क़ीमतों में आई कमी के चलते साठ हज़ार से अधिक मज़दूर बेरोज़गार हुए हैं और लाखों अन्य की वास्तविक मज़दूरी में कमी होने से उनके परिवारों में भुखमरी जैसी स्थित पैदा हुई है। ऐक्शन एड के एक अध्ययन के मुताबिक मार्च 2002 से फ़रवरी 2003 के बीच केवल चार बागानों में ही 240 मज़दूरों की भूख की वज़ह से मौत हो गई।
इसके पहले 2000.2001 के आंकड़ों के आधार पर अंतर्राष्ट्रीय खाद्य नीति एवम शोध संस्थान द्वारा प्रस्तुत ग्लोबल हंगर इंडेक्स ने भी भारत में भुखमरी की समस्या में लगातार हो रही वृद्धि का खुलासा किया था। इस रिपोर्ट के अनुसार वैश्विक परिदृश्य पर नायक की तरह उभरने के दावों के बीच भारत इस रिर्पोर्ट में शामिल सबसे बदतर स्थिति वाले 88 देशों में 66वें क्रम पर है। यहाँ 2 करोड़ से भी अधिक भूखे तथा कुपोषित लोग रहते हैं और इस तरह यह दुनिया की सबसे बड़ी कुपोषित आबादी का घर है। विकसित पश्चिमी देशों और चीन को तो छोड़िये हमारा क्रम मंगोलिया, म्यानमार, श्रीलंका, कीनिया, सूडान और पाकिस्तान के भी बाद आता है।
स्पष्ट है कि भूमण्डलीकरण के बाद के दौर में तमाम दावों और विकास दर में उछाल के बावज़ूद जीवन की न्यूनतम ज़रूरतों से समाज का एक बड़ा तबका महरूम होता जा रहा है। रिसाव का वह सिद्धांत पूरी तरह से विफल होता दिख रहा है जो ऊपरी संस्तर पर समृद्धि आने के चलते इसके अपने आप निचले संस्तरों तक पहुंचने को स्वयंसिद्ध मान रहा था। बराबरी या सामाजिक न्याय जैसी बातें तो ख़ैर इसके एज़ेण्डे में थी हीं नहीं।
यहां सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि गरीब तबके के बीच खाद्यान्न उपलब्धता में यह कमी राष्ट्रीय स्तर पर अनाज़ की कमी की वज़ह से नहीं है। ज्यां जेगलर का पूर्व में दिया गया उद्धरण इस ओर स्पष्ट संकेत करता है। पहले भी आकलैण्ड स्थित ‘खाद्य एवं विकास नीति संस्थान’ के कार्यकारी निदेशक एरिक हाल्ट गिमनेज द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट ‘विश्व खाद्य संकट : इसके पीछे क्या है में यह साफ़ तौर पर कहा गया था कि लोग भूखे हैं और यह प्राकृतिक नहीं है’। खाद्य संकट की भयावहता का जिक्र करते हुए वह बताते हैं कि 1974 में विकासशील देशों में 5 करोड़ लोग भूखे थे और उस वर्ष आयोजित विश्व खाद्य सम्मेलन ने अगले दस सालों में दुनिया से भूख को पूरी तरह से समाप्त करने का प्रस्ताव पास किया था लेकिन 1996, 2006 और 2008 में यह लगातार बढकर क्रमशः 8.3 करोड, 8.5 करोड़ और 8.62 करोड़ हो गई। यही नहीं, अब तक विकासशील और पिछड़ी अर्थव्यवस्थाओं में ही सिमटी यह बीमारी अमेरिका में भी पहुंच गई है। 2008 में वहाँ भूख के शिकार लोगों की संख्या 35 लाख (12 प्रतिशत) तक पहुंच गयी जबकि इस वर्ष सरकारी ख़जाने से पोषण कार्यक्रमों के लिए कुल बज़ट 60 लाख डालर दिया गया! ऐसे में एशिया और अफ्रीका के हालात कोई भी समझ सकता है।
गिमनेज इसके कारणों की सटीक तलाश करते हुए बताते हैं कि पहली बात तो यह कि इसका जनसंख्या वृद्धि से कोई लेना-देना नहीं है। पिछले वर्षों में हमेशा यह तर्क दिया जाता रहा कि जनसंख्या बढने की तेज़ रफ़्तार के चलते खाद्यान्नों का उत्पादन पिछड़ जाता है लेकिन विगत चार वर्षों में जहाँ जनसंख्या की वार्षिक वृद्धि दर 1.14 प्रतिशत रही वहीं अनाज का उत्पादन 2 फीसदी सालाना की दर से बढ़ा। वर्ल्ड हंगर प्रोग्राम के कार्यकारी निदेशक जोसेट शीरन कहते हैं कि ‘‘ पहले से ज्यादा लोग अब भूखे हैं। अनाज भरा पड़ा है लेकिन लोग खरीद नहीं पा रहे हैं।’’
इसलिए अगर प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता में कमी आई है तो फिर कारण अन्य हैं। कारण हैं – जनविरोधी नीतियां, गैरबराबरी आधारित व्यापार संबंध और विकास की गलत अवधारणा। गिमनेज का मानना है कि वर्तमान खाद्यान्न संकट के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ जिम्मेदार हैं। कृषि में उनके बढ़ते हस्तक्षेप से किसान तबाह हो रहे हैं। ब्रेटनवुड्स समझौते से प्राप्त अकूत ताक़त से इन्होंने कृषि उत्पादों से लेकर खाद, बीज, कीटाणुनाशकों और उत्पादन तकनीकों तक पर कब्ज़ा कर लिया है और इसका प्रयोग कर अपार लाभ कमाया है। बाज़ार से कृषि को जोड़ने का कोई लाभ कम से कम एषिया और अफ्रीका के ग़रीब किसानो को तो नहीं ही मिला है। इसका दूसरा पक्ष है अनाजों की क़ीमतों में भारी वृद्धि। मार्च 2008 में विश्व बाज़ार में गेंहू का दाम पिछले साल की तुलना में 130 फ़ीसदी, सोया का 87 फ़ीसदी चावल का 74 फ़ीसदी और मक्के का 31 फ़ीसदी बढ़ गया। पिछले तीन वर्षों में अनाजों के विश्व मूल्य सूचकांक मंे 83 फ़ीसदी की बढ़ोत्तरी हुई जबकि पिछले तीन महीनों में यह वृद्धि 45 फ़ीसदी की हुई जिससे यह सूचकांक 1845 में अपने निर्माण से अब तक के सबसे ऊँचे स्तर पर पहुंच गया। इसका सीधा परिणाम आम आदमी की क्रय शक्ति के सतत संकुचन रूप में सामने आ रहा है। लोग अनाज के रूप में अपनी सबसे प्राथमिक ज़रूरत को पूरा करने में भी असमर्थ हैं नतीजा भूख से पीड़ित और कुपोषित लोगों की संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि।
भूख के इसी सवाल को लेकर और भोजन को संवैधानिक अधिकार घोषित करने की मांग को लेकर अप्रैल 2001 में पीपुल्स यूनियन फ़ार सिविल लिबर्टी की राजस्थान इकाई ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की। याचिका की मूल प्रस्थापना यह थी कि भोजन का अधिकार भारतीय संविधान के आर्टिकल 21 के अंतर्गत आने वाले मूलभूत अधिकार जीवन के अधिकार में ही सन्निहित है। इसके पहले भी 1978 में मेनका गांधी बनाम भारत सरकार तथा 1990 में शान्तिस्टार बिल्डर्स बनाम नारायण खीमालाल टोटामे के मुकदमे में उच्च न्यायालय भोजन के अधिकार को आर्टिकल 21 के तहत मान चुका है। इसके अलावा आर्टिकल 39 ए ( सभी लोगों को जीवन पालने के संदर्भ में पर्याप्त साधन उपलब्ध कराने से संबद्ध), आर्टिकल 47 ( सरकार के प्राथमिक कार्य के रूप में आवश्यक पोषण , जीवन स्तर एवं जन स्वास्थ्य सुधार को चिन्हित करने से संबद्ध तथा आर्टिकल 32(1) ( मूल अधिकारों की उपेक्षा पर उच्च न्यायालय में सीधे अपील करने के अधिकार) के सहारे न्यायालय में भोजन के अधिकार को सुनिश्चित कराने के लिये चली इस क़ानूनी लड़ाई में कई महत्वपूर्ण फ़ैसले सामने आये। (इस याचिका का महत्व इस रूप में भी बहुत बढ़ जाता है कि 2001-2002 के दौरान भारत में जहां एक तरफ़ खाद्यान्न का रिकार्ड उत्पादन हुआ वहीं सूखा प्रभावित इलाक़ों में अकाल जैसी भयावह स्थितियां पैदा हो गयीं। ग़रीब तथा सूखा पीड़ित लोगों को अनाज़ पहुंचाने की जगह अनाज़ के अतिरिक्त स्टाक को बेहद सस्ते दरों पर अमेरिका सहित तमाम देशों को बेच दिया गया और वहां इस अनाज़ का उपयोग जानवरों को खिलाने के लिये किया गया। बाद में इस पूरे मामले में हुए घोटाले का भी पर्दाफ़ाश हुआ जिसके अनुसार अनाज़ की एक बड़ी मात्रा फ़र्ज़ी निर्यात बिलों के ज़रिये काले बाज़ार तक पहुंची। इस मामले की जांच अब तक ज़ारी है।) इस याचिका में राज्य द्वारा भूख राहत उपलब्ध कराने में विफलता को दो विशिष्ट आधारों पर प्रस्तुत किया गया, पहला, लोक वितरण प्रणाली घोर अनदेखी और दूसरा सूखा राहत योजनाओं की अपर्याप्तता। न्यायालय से अपील की गयी कि वह सरकार को फौरन सूखा पीड़ित गांवों में पर्याप्त रोज़गार उपलब्ध कराने, कार्य करने में अक्षम लोगों को सहायता प्रदान करने, लोक वितरण प्रणाली के तहत अनाज़ का क़ोटा बढ़ाने तथा सभी लोगों को सब्सीडाइज़ दरों पर अनाज़ उपलब्ध कराने हेतु निर्देशित करे।.
न्यायालयों के अनुकूल रुख तथा देश भर के मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की सक्रियता के फलस्वरूप कालांतर में ऐसी याचिकाओं में काफ़ी वृद्धि हुई तथा इनके तहत तमाम मांगे सामने आईं। न्यायालय ने अपने 44 से अधिक अंतरिम आदेशों में सरकार को भोजन तथा राहत के लिये बनाये गये तमाम कार्यक्रमों के संबध में अनेक महत्वपूर्ण निर्देश दिये। भूख से होने वाली मौतों तथा इन कार्यक्रमों की असफलता के लिये सरकारों तथा अधिकारियों को सीधे ज़िम्मेदार बनाया गया तथा इन अंतरिम आदेशों के अनुपालन तथा क्रियान्वयन को सुनिश्चित करने के लिये विशेष गैरसरकारी आयुक्त नियुक्त किये गये। वर्तमान में योजना आयोग के पूर्व सचिव डा एन सी सक्सेना इसके आयुक्त हैं और उनकी सहायता के लिये पूर्व आई ए एस और सामाजिक कार्यकर्ता हर्ष मंदर और डा सी पी सुजय की नियुक्ति की गयी है। इन अंतरिम आदेशों में से पहला 28 नवंबर 2001 को ज़ारी किया गया जो आठ खाद्यान्न राहत योजनाओं पर केन्द्रित था, लोक वितरण प्रणाली, अन्त्योदय अन्न योजना, मध्यान्ह भोजन योजना, एकीकृत बाल विकास योजना, अन्नपूर्णा योजना, राष्ट्रीय वृद्धावस्था पेंशन योजना, राष्ट्रीय मातृत्व लाभ योजना और राष्ट्रीय परिवार लाभ योजना। इस अंतरिम योजना द्वारा इन आठ योजनाओं के अंतर्गत मिलने वाले लाभों को अधिकार में परिवर्तित कर दिया गया। अर्थात अब इनके द्वारा मिलने वाली सहायता में कमी या अनदेखी के खिलाफ़ ज़रूरत पड़ने पर न्यायालय में जाया जा सकता था। मध्यान्ह भोजन के संदर्भ में खाद्यान्न देने की जगह पका हुआ खाना देने के निर्देश दिये गये। इसके अलावा लोक वितरण प्रणाली को दुरुस्त बनाये जाने के संबंध में भी कई आदेश दिये गये और ग्राम सभा सहित संबद्ध एजेंसियों तथा अधिकारियों को ज़िम्मेदार बनाया गया।
( न्यायालय के अंतरिम आदेशों तथा अन्य विवरणों पर विस्तार से जानने के लिये देखें राईट टू फ़ूड की वेबसाईट WWW.RIGHTTOFOODINDIA.ORG)
देश के भीतर इन्हीं दबावों और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ज़ारी तमाम रिपोर्टों के कारण हो रही छीछालेदर से बचने के लिये पिछले चुनाव से पहले कांग्रेस नीत यू पी ए ने भोजन के अधिकार को अपने घोषणापत्र में शामिल करते हुए भोजन का अधिकार कानून बनाये जाने का वायदा किया था। वैसे इस बार निर्बाध सत्ता में आने के बाद ऐसे कई क़ानून बनाये गये हैं जो ऊपर से देखने में तो क्रांतिकारी लगते हैं परंतु उनका थोड़ा गहरा अध्ययन सरकार की मंशा को साफ़ कर देता है। उदारीकरण की गति को तीव्रतम संभव स्तर पर ले जाने को कटिबद्ध इस सरकार के लिये ऐसे अधिकार बस जनता के बीच फैलती जा रही बदहाली के बरक्स चेहरा छुपाने और लीपापोती के माध्यम हैं। शिक्षा के अधिकार के बाद हाल में ही जब प्रस्तावित राष्ट्रीय खाद्यान्न सुरक्षा विधेयक की ड्राफ़्ट कापी सामने आई तो यह और स्पष्ट हो गया।
यह प्रस्तावित बिल खाद्यान्न सुरक्षा उपलब्ध कराने की जगह पहले से उपलब्ध सुविधाओं में ही कटौती करने वाला है। भोजन का अधिकार आंदोलन से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ता ज्यां द्रेज़ के अनुसार जहां तक भुखमरी समाप्त करने का सवाल है यह प्रस्तावित बिल बिल्कुल अप्रभावी है। यह वर्तमान खाद्य उपलब्धता में कुछ नहीं जोड़ता। गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों का आवंटन उस स्तर से भी नीचा हो गया है जिसके लिये न्यायालय ने आदेश दिये थे और बाकियों के लिये यह कोई गारंटी नहीं देता। यह प्रस्तावित बिल अवश्य फिर से बनाया जाना चाहिये। ( देखें फ्रंटलाईन, 23 अप्रैल,2010, पेज़ 11)
इस बिल की सबसे पहली समस्या है कि यह खाद्यान्न सुरक्षा को केवल ग़रीबी रेखा से नीचे वाली आबादी के लिये सीमित करता है। इसकी प्रस्तावना के पहले हिस्से में कहा गया है कि, यह एक ऐसा क़ानून जो भारत की समस्त जनता को खाद्यान्न सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिये क़ानूनी ढांचा उपलब्ध करायेगा जिससे उनकी सक्रिय तथा स्वस्थ जीवनशैली को प्रोत्साहित किया जा सके और वे राष्ट्रनिर्माण में उत्पादक भूमिका निभा सकें।‘ अब इस हिस्से में बात चाहे जितनी अच्छी लगती हो लेकिन खाद्यान्न सुरक्षा जैसी किसी चीज़ को समुचित रूप से परिभाषित न किये जाने और राष्ट्र निर्माण जैसी अमूर्त शब्दावली को रोज़गार सहित किसी भी मूर्त परिभाषा से न जोड़े जाने के कारण इसका कोई सम्यक अर्थ नहीं निकलता, यही नहीं ‘ समस्त नागरिकों’ को खाद्यान्न सुरक्षा उपलब्ध कराये जाने की बात भी अगली ही लाईन में मुगालता साबित होती है जब यह कहा जाता है कि’ यह क़ानून समाज के गरीब, असुरक्षित और भेद्य वर्ग लोक वितरण प्रणाली में सुधार द्वारा प्रति व्यक्ति प्रतिमाह खाद्यान्न की एक न्यूनतम मात्रा उपलब्ध करायेगा। साफ़ है कि इस परिभाषा में वे करोड़ों लोग छूट जायेंगे जो सरकारी ग़रीबी रेखा से ऊपर हैं। अब इन लोगों को खाद्यान्न सुरक्षा का कानूनी कवच खाद्यान्न उपलब्ध कराये बिना कैसे मिलेगा यह कोई भी समझ सकता है। यहां एक झोल यह भी है कि इस प्रस्तावित बिल के अनुसार राज्य सरकारें सिर्फ़ उन लोगों को राहत प्रदान कर सकेंगी जो केन्द्र सरकार द्वारा अति ग़रीब के रूप में चिन्हित हैं। इस प्रकार केरल और तमिलनाडु जैसे राज्य जहां लोकवितरण प्रणाली का सार्वत्रीकरण किया जा चुका है पहले से दी जा रही राहत को वापस लेने पर मज़बूर होंगे। यहां यह बता देना समीचीन होगा कि सक्सेना समिति द्वारा परिभाषित गरीबी रेखा को स्वीकार न किये जाने के पीछे एक तर्क यह था कि इस परिभाषा से ग़रीबों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हो जायेगी और इतने लोगों को सस्ते क़ीमत पर खाद्यान्न उपलब्ध करा पाना संभव नहीं होगा। इन अति गरीब परिवारों के लिये भी मात्र 25 किलो अनाज़ उपलब्ध कराने की बात है जबकि अब तक उन्हें अंत्योदय योजना के तहत 35 किलो अनाज़ मिल रहा था।
यही नहीं, इस योजना से अतिवाद, नक्सलवाद तथा आतंकवाद पीड़ित इलाकों को अलग रखा गया है और युद्ध, आर्थिक आपातकाल जैसे समयों में स्थगित करने का प्रस्ताव है। इसका मतलब यह हुआ कि अगर मंदी जैसी कोई आर्थिक समस्या आई या फिर युद्ध छिड़ा तो उसके पहले शिकार ग़रीब होंगे जिनसे सस्ते अनाज़ की यह सीमित राहत भी छिन जायेगी साथ ही सबसे गरीब आदिवासी जो नक्सल पीड़ित इलाक़ों में रहते हैं उन तक भी इस योजना का लाभ नहीं पहुंचेगा।
दरअसल, लोकवितरण प्रणाली का सार्वत्रीकरण इस पूरे आंदोलन में एक अत्यंत महत्वपूर्ण मांग रही है। आर्थिक सुधारों के बाद सर्वसुलभ लोक वितरण प्रणाली के बाद जबसे इसे लक्षित ( टारगेटेड) बना दिया गया तभी से इसकी भारी अनदेखी हुई है और एक व्यवस्था के रूप में यह बिल्कुल नाकारा साबित हुई है। भोजन के अधिकार आंदोलन से जुड़े लोगों का तर्क है कि इसे फिर से सभी के लिये सुलभ बनाया जाना चाहिये। ऐसा करने से एक तरफ़ उन लोगों को भी राहत मिलेगी जो गरीबी रेखा कार्ड से किंचित कारणों से महरूम हैं और दूसरी तरफ़ अनाज़ की बढ़ती क़ीमतों पर काबू भी पाया जा सकेगा।
कुल मिलाकर इस कानून का सारा ज़ोर बस लक्षित लोक वितरण प्रणाली के तहत चिन्हित परिवारों को न्यूनतम मदद उपलब्ध करा कर सारी ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेना है। इस बात को बिल्कुल नज़रअंदाज़ कर दिया गया है कि तथाकथित एपीएल आबादी का भी एक बड़ा हिस्सा कुपोषण और भुखमरी का शिकार है। यही वज़ह है कि इस आंदोलन से जुड़े लोगों ने इस प्रस्तावित क़ानून का तीखा विरोध दर्ज़ कराया जिसके बाद सत्ताधारी दल के भीतर भी इसको लेकर असंतोष स्पष्ट दिखाई दिया। अब यह कहा जा रहा है कि इन कमियों को दूर करके संशोधित ड्राफ़्ट पेश किया जायेगा।
दरअसल, अगर ये सारी आपत्तियां दूर भी कर दी जायें तो भी यह ध्यान में रखा जाना चाहिये कि भोजन के अधिकार में सारी कवायद अनाज़ को दुकानों में उपलब्ध करा देने भर पर है। अगर ऐसा संभव हो भी जाता है तो भी गांवों तथा शहरों में रोज़गारों में लगातार आती कमी, अनाज़ों तथा जीवनावश्यक वस्तुओं की क़ीमतों में अभूतपूर्व कृषि के कार्पोरेटीकरण तथा सरकारी अनदेखी से लगातार अलाभकारी होते जाने और नव साम्राज्यवादी नीतियों के चलते धन और आय के सीमित हाथों में सतत संकेन्द्रण के कारण लोगों की क्रयशक्ति में लगातार कमी आई है। शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी सुविधाओं के निजीकरण ने इन मदों में आम आदमी को अपने बज़ट का बड़ा हिस्सा ख़र्च करने पर मज़बूर किया है। अपनी इस घटती हुई तथा अनिश्चित क्रय शक्ति के चलते आम आदमी अपने तथा अपने बच्चों के लिये आवश्यक पोषण में कटौती करने पर मज़बूर हुआ है। आय में वृद्धि के नियमित प्रयासों के बिना न्यायालय या संविधान द्वारा दिये गये कोई भी अधिकार अंततः काग़ज़ी घोषणा बनकर ही रह जायेगें। नव साम्राज्यवादी शासन व्यवस्था के तहत यह संभव ही नहीं है कि धन और आय के समान वितरण हेतु कोई सार्थक कदम उठाया जा सके क्योंकि असमानता और अतिरेकों का सीमित हाथों में संकेन्द्रण इसकी परिचालक शक्ति है। बहुराष्ट्रीय पूंजी सस्ते श्रम और संसाधनों की तलाश में पूरी दुनिया में घूमती है। अतिरेक के इसी अंध लालसा का परिणाम है विकासशील कहलाने वाली तमाम व्यवस्थाओं में श्रमिकों की तबाही और ज़मीनों तथा प्राकृतिक संसाधनों की भयावह लूट के चलते अभूतपूर्व विस्थापन। मंदियों की नियमित पुनरावृत्ति तथा हिंसक प्रतिरोधों के बावज़ूद मुनाफ़े की इस अदम्य लालसा में कोई कमी नहीं आई है। सेज़ ही नहीं आईपीएल जैसे भ्रष्ट तथा अश्लील कृत्यों में हमने सत्ता वर्ग तथा पूंजीपतियों की जो नाभिनालबद्धता देखी है उसके बरक्स ऐसे किसी क्रांतिकारी परिवर्तन की उम्मीद करना बस दिवास्वप्न ही होगा। अगर इस परिस्थिति को बदलकर इन नीतियों का वैकल्पिक माडल प्रस्तुत कर कोई जनता के बड़े समूह को इस वंचना तथा शोषण से मुक्ति दिला सकता है तो वे हैं वैज्ञानिक समाजवाद की पक्षधर जनता की ताक़तें। अपने बिखराव, टूटफूट तथा संभ्रम से बाहर निकलकर इन्हें आज यह ऐतिहासिक ज़िम्मेदारी निभानी ही होगी।
5 टिप्पणियां:
गरीबी का कोई सच्चा सर्वे आज तक आ पाया है? व्यवहारतः क्या यह संभव भी है?
महत्वपूर्ण आलेख।
बहुत सही विश्लेषण है ।
thanks for bringing this article in hindi.
सभी सरकारी आंकरे और सर्वे झूठे हैं ......इस देश में सच्चे तथ्यों पर आधारित नीतियाँ बननी बंद हो चुकी है...देश कागजी विकाश कर रहा है लेकिन इस देश के लोग हर मामले में पतन की ओर जा रहें हैं खासकर चारित्रिक पतन और असामाजिक आचरण के मामले में......और इसकी सबसे बड़ी वजह है की प्रधानमंत्री जैसे पदों पर बैठा व्यक्ति अपने पद और सुख सुविधा के लालच में भ्रष्टाचारियों के आगे नत मस्तक है.....शर्मनाक स्थिति है.....
Bhayankar moorkhtaapoorna Aalekh.
एक टिप्पणी भेजें