शनिवार, 20 फ़रवरी 2010

किसका विकास- कैसा विकास?


(जाने-माने अर्थशास्त्री गिरीश मिश्र जी का यह आलेख अभी हाशिया पर पढ़ा … मुझे बेहद उपयोगी लगा तो यहां भी लगा दिया )

पिछले कई हफ्तो से यह धुआंधार प्रचार चल रहा है कि भारतीय अर्थव्यवस्था विश्वव्यापी अति मंदी के भंवर से लगभग बाहर आ गई है। उसकी संवृध्दि रफ्तार पकड़ने लगी है और वह दिन दूर नहीं जब वह दो अंकों में हो जाएगी तथा भारत विश्व की एक महाशक्ति बन जाएगा। साथ ही यह रेखांकित करने की कोशिश हो रही है कि भारत महाशक्ति बनने का लक्ष्य वर्षों पहले प्राप्त कर लेता यदि नेहरूवादी चिंतन और दृष्टिकोण आडे़ नहीं आए होते। नेहरू-इंदिरा युग में भारतीय अर्थव्यवस्था 3।5 प्रतिवर्ष की ''हिन्दू'' संवृध्दि दर के भंवर से बाहर नहीं आ सकी थी। दावा किया जाता है कि 1991 में नरसिंह राव के सत्तारूढ़ होते ही नेहरूवादी चक्रव्यूह टूटा और अर्थव्यवस्था उससे निकलकर आर्थिक सुधारों की सडक़ पर सरपट दौडने लगी। आर्थिक संवृध्दि दर दोगुनी से भी अधिक हो गई।


यह उक्ति सर्वविदित है कि आमतौर से जो दिखता है वह कोई जरूरी नही है कि वास्तविकता के करीब है। अमित भादुडी़ ने अपनी प्रकाशित पुस्तक (द फेंस यू वेअर अफ्रेड टू सी, पेंगुइन, 2009) में तथ्यों के आधार पर बतलाया है कि भारतीय अर्थ व्यवस्था प्रत्यक्षत: भले ही सेहतमंद लगे वस्तुत: वह एक गंभीर बीमारी से ग्रस्त है जो कैंसर की तरह देश की अर्थव्यवस्था और राज्य व्यवस्था पर हावी होने लगी है। वस्तुत: हम इतिहास के उन छलावे भरे गलियारों में से एक से होकर गुजर रहे हैं, जहां हम भ्रांति के शिकार है कि किसी भी कीमत पर हम संवृध्दि की उच्च दर प्राप्त कर लें तो हम देश और उसकी जनता को विकास से मार्ग पर ले जाएंगे। यह धारणा घर कर गई है कि संवृध्दि और विकास एक दूसरे से पर्याय है। यह दावा किया जा रहा है कि यदि येन- केन- प्रकोरण कुछ लंबे समय तक आर्थिक संवृध्दि की रफ्तार बनाई रखी गई तो आर्थिक विकास स्वत: प्राप्त हो जाएगा यानी वांछित आर्थिक सामाजिक सांस्कृतिक और राजनीतिक बदलाव आ जाएगा। दूसरे शब्दों में विकास संवृध्दि का उप उत्पाद (बाई प्रोडक्ट) है। कहना न होगा कि उपरोक्त धारण तर्क एवं आर्थिक इतिहास से मिलने वाले तथ्यों एवं अनुभवों के विपरीत है। फिर भी देशी- विदेशी निहित स्वार्थ इसका ढिंढोरा पीट रहे हैं। प्रो। भादुडी़ के अनुसार इस प्रकार की भ्रामक धारणाओं के पीछे बडे़ क़ारोबारी हैं, जो पैसों के बल पर तथाकथित विशेषज्ञों को उन्हें सृजित करने लिए प्रेरित करते और मीडिया के जरिए मोहक शब्दों और तर्कों से सुसज्जित कर फैलाते है। इस क्रम में बडे़ क़ारोबारियों एवं राजनेताओं के बीच परस्पर गंठबंधन हो जाता है। यह अनायास नहीं है कि 2004 और 2009 के लोकसभा चुनावों के बीच करोड़पति उम्मीदवारों की संख्या 128 में बढ़कर 300 हो गई। उपर्युक्त भ्रामक धारण को प्रचारित करने में शिक्षित मध्यम वर्ग की भारी भूमिका होती है। आए दिन पत्र पत्रिकाओं एवं इलेक्ट्रोनिक मीडिया में वे उनके समर्थन में दलीले देते दिखते हैं।

नेहरू के जमाने में सर्वोपरि महत्व देश की एकता और अखंडता को दिया जाता था। आर्थिक संवृध्दि के परिणामस्वरूप लोगों की वास्तविक आय में बढो़तरी के साथ-साथ दलितों, पिछडे़ वर्गों, आदिवासियों तथा अन्य शोषित- पीडि़त व्यक्तियों पर विशेष ध्यान दिया जाए जिससे उन्हें रोजगार के पर्याप्त अवसर मिलें और शिक्षा एवं स्वास्थ्य संबंधी सुविधाएं प्राप्त हों। इसलिए आरक्षण पर जोर दिया गया। साथ ही पिछडे़ क्षेत्रों के आर्थिक विकास को तरजीह देने पर बल दिया गया। नेहरू का ख्याल था कि यदि समाज में व्याप्त असमानता को मिटाने तथा क्षेत्रीय असंतुलन को खत्म करने की ओर आर्थिक नीतियों की उन्मुख रखा जाय तो देश में एकता मजबूत तथा अलगाव वादी भावनाएं दूर होंगी। सभी नागरिक एवं क्षेत्रों का परस्पर जुडा़व बढेग़ा। स्पष्ट है कि राज्य की मजबूत सक्रिय भूमिका के बिना यह असंभव था। इसीलिए राजकीय क्षेत्र अर्थव्यवस्था में पनपा जो अधिकतम मुनाफे के लक्ष्य से ऊपर उठ कर काम करने लगा। बरौनी में तेल शोधक कारखाना और भिलाई में इस्पात कारखाना पिछडे़ इलाकों के विकास को सर्वोपरि रखकर लगाए गए।नरसिंह राव सरकार के जमाने से जो आर्थिक सुधार कार्यक्रम चालू किए गए हैं, उनके तहत राज्य की आर्थिक भूमिका सिकुड़ती जा रही है। नेहरू-इंदिरा काल में 3।5 प्रतिशत प्रतिवर्ष की तथा कथित हिन्दु दर के बावजूद रोजगार के अवसर दो प्रतिशत वार्षिक दर से बढ़े मगर 1990 के दशक के बाद आर्थिक संवृध्दि यानी (सकल राष्ट्रीय आय) की बढोतरी भले ही 7 प्रतिशत या उस से भी कम प्रति वर्ष बढे़ हैं। रोजगार के अवसर मिलने से आदमी का अपने पैरों पर खडा़ होने के साथ उसका राष्ट्र एवं समाज से जुडा़व बढ़ता है। वह यह महसूस करता है कि वह अपनी क्षमता और कौशल का इस्तेमाल राष्ट्र के हित में तथा उसके निर्माण के लिए कर रहा है। जब उसे रोजगार नहीं प्राप्त होता तब हीन भाव उस पर हावी होने लगता है।

नेहरू- इंदिरा काल में नियमित रोजगार के अवसर पैदा करने पर जोर था। परिणामस्वरूप संगठित क्षेत्र का विस्तार हो रहा था। मगर अब नजरिया बदल गया है। संगठित क्षेत्र में रोजगार के अवसर बढा़ने के बदले कम करने पर जोर है। कहना न होगा कि असंगठित क्षेत्र से ठेके पर या दैनिक मजदूरी देकर काम कराने में पूंजीपति फायदे में रहते हैं। मजदूरी की दर और काम के घंटों और स्थितियों के मामले में उनकी चलती है। श्रम कानून और श्रम विभाग आडे़ नहीं आते। किसी भी प्रकार के सवैतनिक अवकाश का प्रश्न ही नहीं उठता। यूनिफॉर्म तथा आवास की व्यवस्था नहीं करनी पडती। नेहरू के जमाने में घरेलू बाजार को ध्यान में रखकर ''क्या, कैसे और किनके लिए'' जैसे उत्पादन से जुडे प्रश्नों के उत्तर तलाशे जाते थे। आज स्थिति बदल गई है। अब उन्हीं वस्तुओं के उन्हीं प्रौद्योगिकियों से उन्हीं लोगों के लिए उत्पादन पर जोर है जिससे हमारा माल विदेशी बाजार में बिके। देश की अपनी जनता गौण हो गई है। हमारे अपने देशी बाजार के लिए जो वस्तुएं और सेवाएं उत्पन्न की जाती हैं उनको क्रयशक्ति सम्पन्न लोगों की ओर उन्मुख किया जाता है। यह अकारण नहीं है कि आम जन के लिए उपर्युक्त कपड़ों, जूतों आदि पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता। चूंकि हमारा उत्पादन मुख्यतया विदेशी बाजार तथा देशी सम्भ्रांत लोगों पर विशेष ध्यान रखता है इसलिए श्रम उत्पादकता बढा़ने और मजदूरी संबंधी लागत कम करने पर जोर दिया जाता है। दलीलें दी जाती हैं कि भूमंडलीकरण के वर्त्तमान युग में विदेशी प्रतिद्वंद्विता में इसके बिना ठहर पाना असंभव है। यही कारण है कि श्रमिकों को जब मन आए तब हटाने तथा उन्हें अनुशासित करने के नाम पर श्रम कानूनों में मालिकों के मनोनुकूल परिवर्तन करने की मांग तथा कथित विश्व प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों एवं विशेषज्ञों द्वारा लगातार उठाई जा रही है। याद होगा कि सेज की स्थापना करते समय श्रम कानूनों और श्रम संगठनों को उसकी सीमा रेखा से बाहर रखने की बात की गई थी क्योंकि तभी उनमें निवेश होगा और उनके मालों की उत्पादन लगात कम होगी तथा वे विश्व बाजार में टिक पाएंगे।चूंकि हमारे यहां संवृध्दि का सम्मोहन लगातार बढ़ता जा रहा है इसलिए विदेशी निवेश के साथ ही सेवाओं के क्षेत्र और उसके बाद विनिर्माण के क्षेत्र पर जोर है। कृषि क्षेत्र जहां हमारी दो तिहाई जनसंख्या लगी है, काफी उपेक्षित होती जा रही है। राजकीय कृषि निवेश में अपेक्षित वृध्दि नहीं हो रही है। सकल घरेलू उत्पादन में कृषि क्षेत्र का सापेक्ष हिस्सा निरंतर घटता जा रहा है। परिणाम स्वरूप कृषि क्षेत्र में लगे लोगों की प्रति व्यक्ति वास्तविक औसत आय नही बढ़ रही है। गांवों से शहरों की और लागतार पयालन हो रहा है। परिणामस्वरूप शहरों में मलिन बस्तियों का प्रसार होता जा रहा है। समाज में आय और संपदा की दृष्टि से विषमता बढ़ रही है। एक ओर जहां फोर्ब्स पत्रिकाद्वारा प्रकाशित विश्व के बडे़ धनवानों की सूची में भारतीय की संख्या तेजी से बढ़ती जा रही है, वहीं बीस रूपये या उससे कम की दैनिक आय पर गुजारा करने वालों की तदाद में भी तेजी से बढ़ोतरी हो रही है। हर जगह धनी-गरीब के बीच अंतर में वृध्दि हो रही है। आर्थिक विषमता में वृध्दि और धनाढ्यों द्वारा अपने वैभव के प्रदर्शन के कारण अपराध विभिन्न रूपों में प्रकट हो रहा है। अपहरण की संख्या में खासी वृध्दि हुई है। आए दिन शराब पीकर यातायात के नियमों की धज्जी उडा़ पटरियों पर चलने या सोने वालों की जान जाना आम बात है। पांच लाख रूपए की गाडी़ वाले पांच कौडी़ के आदमी की भला क्यों परवाह करें? ऐसा नहीं है कि धनाढ्य सुखी हैं। उनके मुहल्लों में बाडे़ लग रहे हैं। चौकीदार खडे़ कर वे हर समय अपनी सुरक्षा को लेकर चिंतित है। साफ है कि आर्थिक संवृध्दि से सबसे अधिक लाभान्वित होने वाले भी चिन्ता रहित सुखी जीवन व्यतीत नहीं कर पा रहे। फिर मधुमेह और ह्दय रोग में तेजी से बढोतरी आरामतलबी का परिणाम है।

समाज में आर्थिक विषम की बढोतरी का परिणाम माओवादी आंदोलन के विस्तार में तथा क्षेत्रीय असंतुलन में इजाफा का प्रकटीकरण तेलंगाना, विदर्भ गोरखालैंड आदि से जुडे़ अलगावादी आंदोलन में हो रहा है। पिछडे़ राज्यों से जीविका की खोज में आने वालों के प्रति महाराष्ट्र, असम, पंजाब आदि में जो भावनाएं देखी जा रही हैं, वे देश की अखंडता के लिए ठीक नहीं है।नई आर्थिक नीतियां नवउदारवादी चिंतन पर आधारित हैं जिनका वर्तमान गढ़ शिकागो है। अगले पखवाडे़ हम देखेंगे कि उनकी रूपरेखा क्या है और वह नेहरूवादी दृष्टिकोण को क्यों अपदस्थ कर रहा है।

समाप्त

**शीर्षक मैने परिवर्तित किया है

5 टिप्‍पणियां:

Rangnath Singh ने कहा…

धन्यवाद प्रस्तुती के लिए। हिन्दी में आर्थक विषयों पर गिरीश जी जैसे लेखक का होना सुखद है।

अजित वडनेरकर ने कहा…

कुछ तो हो रहेगा।
बहुत दिन बीते हैं यूं ही।
रीसेशन के नाम पर
न टूटी जो खामोशी
तो अब
कैसे टूटेगी?
टूटनी तो चाहिए फिर भी....

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

आलेख के निष्कर्ष सही हैं।

शरद कोकास ने कहा…

बहुत अच्छा विश्लेषण है यह ।

شہروز ने कहा…

साथियो!
आप प्रतिबद्ध रचनाकार हैं. आप निसंदेह अच्छा लिखते हैं..समय की नब्ज़ पहचानते हैं.आप जैसे लोग यानी ऐसा लेखन ब्लॉग-जगत में दुर्लभ है.यहाँ ऐसे लोगों की तादाद ज़्यादा है जो या तो पूर्णत:दक्षिण पंथी हैं या ऐसे लेखकों को परोक्ष-अपरोक्ष समर्थन करते हैं.इन दिनों बहार है इनकी!
और दरअसल इनका ब्लॉग हर अग्रीग्रेटर में भी भी सरे-फेहरिस्त रहता है.इसकी वजह है, कमेन्ट की संख्या.

महज़ एक आग्रह है की आप भी समय निकाल कर समानधर्मा ब्लागरों की पोस्ट पर जाएँ, कमेन्ट करें.और कहीं कुछ अनर्गल लगे तो चुस्त-दुरुस्त कमेन्ट भी करें.

आप लिखते इसलिए हैं कि लोग आपकी बात पढ़ें.और भाई सिर्फ उन्हीं को पढ़ाने से क्या फायेदा जो पहले से ही प्रबुद्ध हैं.प्रगतीशील हैं.आपके विचारों से सहमत हैं.

आपकी पोस्ट उन तक तभी पहुँच पाएगी कि आप भी उन तक पहुंचे.