अर्थात
विकास के दावों के बीच हक़ीक़त की तलाश
सोमवार, 25 अक्तूबर 2010
अर्जुन सेनगुप्ता - एक मानवतावादी विचारक का अवसान
शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010
भूमण्डलीय गांव में भूख का सवाल
रविवार, 7 मार्च 2010
भूमण्डलीय ग्राम से बहिष्कृत शहरी ग़रीब
ग़रीबी की बहस हमारे देश में बहुत पुरानी है। औपनिवेशिक ग़ुलामी से मुक्ति के बाद से ही हमारे विकास की तमाम योजनाओं में ग़रीबी हटाने और देश के भीतर व्याप्त सामाजार्थिक विषमता को दूर करने की बातें की जाती रहीं। लोकतांत्रिक प्रणाली और शायद गांधी के ग्राम स्वराज से प्रभावित तत्कालीन कांग्रेसी और समाजवादी राजनेताओं और बुद्धिजीवियों ने गांवो के विकास और वहां की व्यापक ग़रीब आबादी की समस्याओं को केन्द्र में लाने के महती प्रयास किये। उदाहरण के लिये समाजवादी आंदोलन के एक प्रमुख नेता चौधरी चरण सिंह ने अपनी किताब – ‘भारत के आर्थिक दुःस्वप्न – कारण और निवारण ’ में गावों के विकास और वहां रह रही ग़रीब बहुसंख्या के विकास में असफल रहने का आरोप लगाते हुए तत्कालीन कांग्रेस सरकार की कड़ी आलोचना करते हुए विकल्प के रूप में ग्रामीण अर्थव्यवस्था के समग्र विकास के लिये लघु तथा कुटीर उद्योगों के विकास तथा सहकारिता के विस्तार का प्रस्ताव किया था। वहीं वामपंथी आंदोलन भी ग़रीबों के प्रति अपनी स्पष्ट पक्षधरता के बावज़ूद मुख्यतः संगठित क्षेत्र के कामगारों तक ही सीमित रहा। गांव तथा उसकी समस्यायें हिन्दी साहित्य की प्रगतिशील धारा पर भी हावी रहीं और एक दौर तो ऐसा आया था कि लेखक के लिये अपनी जनपक्षधरता साबित करने के लिये ग्रामीण परिवेश पर लिखना आवश्यक माना जाता था, और यह एक हद तक अब भी है।
भारत की विशाल ग्रामीण जनसंख्या तथा कृषि पर इसकी निर्भरता को देखते हुए यह स्वाभाविक भी था। लंबे औपनिवेशिक शासन के दौर में जिस तरह पारम्परिक अर्थव्यवस्था को नष्ट कर दिया था और पूरी दुनिया में हुए शहरीकरण के विपरीत भारत में नगरों से गावों की तरफ़ हुए पलायन ने स्थिति को बद से बद्तर बना दिया था। एक तरफ़ कृषि पर जनसंख्या का दबाव बढ़ा था तो दूसरी तरफ़ इस क्षेत्र की उत्पादकता भी काफ़ी कम थी। इसके साथ भू-वितरण में भयावह असमानता और गावों में पुरोगामी सामाजिक संरचनाओं की उपस्थिति ने गावों को, ख़ासतौर पर, वहां रहने वाली गरीब दलित-पिछड़ी आबादी के लिये नर्क में तब्दील कर दिया था। इसीलिये आज़ादी के बाद जब नेहरुवादी मिश्रित अर्थव्यवस्था के दौर में औद्योगीकरण आरंभ हुआ तो बड़ी संख्या में गावों से शहरों की तरफ़ माईग्रेशन हुआ। नये विकसित हो रहे शहरों में गावों की तलछट पर रह रहे ये लोग बेहतर रोज़गार, समानतापूर्ण व्यवहार और प्रगति के सपनों के साथ आये। महानगरों में व्यापक स्तर पर हो रहे निर्माण कार्यों और नई-नई फ़ैक्ट्रियों के लिये श्रमिकों की यह फ़ौज़ एक आवश्यकता भी थी। अपने बेहद सस्ते श्रम से इस विस्थापित सर्वहारा आबादी ने नये भारत के विकास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और अब भी निभा रहे हैं। लेकिन विकास की सारी चमक-दमक के बावज़ूद यह तबका अपने बसाये शहरों में भी रहा अजनबी की ही तरह। जीवन की मूलभूत आवश्यकतायें अब भी उसके लिये एक सपना ही रहीं। शहरों की नई-नई बस्तियों में इनके लिये जगह नहीं थी। मज़दूरी के बेहद निचले स्तर और अक्सर आय की अनिश्चितता के कारण यह तबका, और ख़ास तौर पर इस आबादी का वह हिस्सा जो दैनिक वेतनभोगी में तब्दील हुआ या जिसने रिक्शा खींचने, सब्ज़ी बेचने, ठेले-खोमचे लगाने जैसे काम अपनाये, शहर में भी उतना ही बेगाना रहा जितना वह गांव में था, बल्कि शहरों की विशिष्ट संरचना के कारण अक्सर उससे भी ज़्यादा। इसे रहने की जगह मिली शहरों के बाहरी और निचले भागों में बसी झोपड़पट्टियों में और बिज़ली, साफ़ पानी, सैनिटेशन जैसी सुविधायें कभी इन तक पहुंची ही नहीं। शहर के संभ्रांत वर्ग के लिये यह ख़ूबसूरती पर लगे धब्बे की तरह अवांछनीय रहा तो राजनैतिक दलों के लिये एक वोटबैंक के रूप में अपनी अनुपयोगिता के कारण महत्वहीन। वैसे यह नियति तो मंत्र की तरह जाप किये गये ‘ भारत गावों में बसता है’ के बावज़ूद गावों की भी रही ही। यहां यह भी स्पष्ट कर देना आवश्यक होगा कि शहरी और ग्रामीण ग़रीबी आपस में विरोधाभासी या प्रतियोगी नहीं अपितु पूरी तरह से एक दूसरे के पूरक हैं। कृषि अर्थव्यवस्था के निरंतर बदहाल होते जाने के कारण हीं लोग गांव से शहरों की ओर रोज़गार की तलाश में आने पर मज़बूर होते हैं और शहरी ग़रीबों की संख्या बढ़ती चली जाती है।
पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र संघ विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) के सहयोग से भारत सरकार के भवन निर्माण तथा शहरी विकास मंत्रालय द्वारा ज़ारी पहली ‘शहरी ग़रीबी रिपोर्ट’ में प्रस्तुत आंकड़े तथा तथ्य स्थिति की भयावहता ही बयान नहीं करते अपितु इस संदर्भ में फैले तमाम दुष्प्रचारों की कलई भी उतारते हैं।
इस रिपोर्ट का निष्कर्ष है कि भारत में जिस जनसंख्या वृद्धि को सबसे बड़ी समस्या के रूप में निरूपित किया जाता है शहरों में वह दूसरे एशियाई देशों से कम है। इसके अनुसार पिछले दिनों भारत की संवृद्धि दर एशिया की कुछ सबसे तेज़ विकसित हो रही अर्थव्यवस्थाओं के समकक्ष 8 फ़ीसदी रही लेकिन यहां शहरीकरण की वृद्धि दर 28 फ़ीसदी रही जो एशिया की औसत शहरीकरण वृद्धि दर से कम रही। लेकिन इसके बावज़ूद यहां गरीबों का अनुपात 25 फीसदी है। रिपोर्ट का यह भी मानना है कि पिछले दो दशकों में ग्रामीण और शहरी ग़रीबी के बीच का अंतर कम हुआ है। साथ ही संवृद्धि दर के तेज़ होने का असर शहरी ग़रीबी के कम होने के रूप में नहीं हुआ है। जिसके चलते शहरों में झुग्गी-झोपड़ी में रहने वालों की संख्या बढ़ी है। 2001 की जनगणना के अनुसार भारत के शहरों में झुग्गी-झोपड़ी में रहने वालों की संख्या 42 करोड़ छह लाख है जो कि लगभग स्पेन की कुल जनसंख्या के बराबर है। यही नहीं झुग्गी-झोपड़ी में रहने वालों की संख्या में वृद्धि के बावज़ूद झुग्गी-झोपड़ियों की संख्या में वृद्धि न होने के कारण इनका स्तर और भी बद्तर हुआ है। इन जगहों पर सुविधाओं का भयावह अभाव है। ऐसी लगभग 55 फीसदी बस्तियों में शौचालयों की कोई व्यवस्था नहीं है और ये पानी, बिज़ली, जैसी चीज़ों से भी महरूम हैं। इसके अलावा इसी जनगणना के अनुसार अब भी शहरों में सात लाख अठहत्तर लोगों के पास अपनी कहने को कोई छत नहीं है और ये फुटपाथों , रेल की पटरियों के किनारे, खुले मैदानों तथा सड़कों के इर्द-गिर्द रात बिताने को मज़बूर हैं। इनके लिये रैन बसेरों का इंतज़ाम कितना नाकाफ़ी है यह देखने के लिये दिल्ली का उदाहरण काफ़ी होगा जहां लगभग एक लाख निराश्रितों के लिये बस 2937 लोगों की क्षमता वाले 14 रैन बसेरे हैं यानि सिर्फ़ तीन फीसदी लोगों के लिये शेष या तो खुले आसमान के नीचे सोते हैं या फिर निजी ठेकेदारों के रहमोकरम पर। रिपोर्ट में एक अध्ययन का भी ज़िक्र है जिसके अनुसार महानगरों के निराश्रित मर्द, औरत और बच्चे अक्सर पुलिस के दुर्व्यवहार के शिकार होते हैं। रईसजादों द्वारा इनको कुचले जाने के किस्से तो आये दिन अख़बारों में आते ही रहते हैं।
शनिवार, 20 फ़रवरी 2010
किसका विकास- कैसा विकास?
(जाने-माने अर्थशास्त्री गिरीश मिश्र जी का यह आलेख अभी हाशिया पर पढ़ा … मुझे बेहद उपयोगी लगा तो यहां भी लगा दिया )
पिछले कई हफ्तो से यह धुआंधार प्रचार चल रहा है कि भारतीय अर्थव्यवस्था विश्वव्यापी अति मंदी के भंवर से लगभग बाहर आ गई है। उसकी संवृध्दि रफ्तार पकड़ने लगी है और वह दिन दूर नहीं जब वह दो अंकों में हो जाएगी तथा भारत विश्व की एक महाशक्ति बन जाएगा। साथ ही यह रेखांकित करने की कोशिश हो रही है कि भारत महाशक्ति बनने का लक्ष्य वर्षों पहले प्राप्त कर लेता यदि नेहरूवादी चिंतन और दृष्टिकोण आडे़ नहीं आए होते। नेहरू-इंदिरा युग में भारतीय अर्थव्यवस्था 3।5 प्रतिवर्ष की ''हिन्दू'' संवृध्दि दर के भंवर से बाहर नहीं आ सकी थी। दावा किया जाता है कि 1991 में नरसिंह राव के सत्तारूढ़ होते ही नेहरूवादी चक्रव्यूह टूटा और अर्थव्यवस्था उससे निकलकर आर्थिक सुधारों की सडक़ पर सरपट दौडने लगी। आर्थिक संवृध्दि दर दोगुनी से भी अधिक हो गई।
यह उक्ति सर्वविदित है कि आमतौर से जो दिखता है वह कोई जरूरी नही है कि वास्तविकता के करीब है। अमित भादुडी़ ने अपनी प्रकाशित पुस्तक (द फेंस यू वेअर अफ्रेड टू सी, पेंगुइन, 2009) में तथ्यों के आधार पर बतलाया है कि भारतीय अर्थ व्यवस्था प्रत्यक्षत: भले ही सेहतमंद लगे वस्तुत: वह एक गंभीर बीमारी से ग्रस्त है जो कैंसर की तरह देश की अर्थव्यवस्था और राज्य व्यवस्था पर हावी होने लगी है। वस्तुत: हम इतिहास के उन छलावे भरे गलियारों में से एक से होकर गुजर रहे हैं, जहां हम भ्रांति के शिकार है कि किसी भी कीमत पर हम संवृध्दि की उच्च दर प्राप्त कर लें तो हम देश और उसकी जनता को विकास से मार्ग पर ले जाएंगे। यह धारणा घर कर गई है कि संवृध्दि और विकास एक दूसरे से पर्याय है। यह दावा किया जा रहा है कि यदि येन- केन- प्रकोरण कुछ लंबे समय तक आर्थिक संवृध्दि की रफ्तार बनाई रखी गई तो आर्थिक विकास स्वत: प्राप्त हो जाएगा यानी वांछित आर्थिक सामाजिक सांस्कृतिक और राजनीतिक बदलाव आ जाएगा। दूसरे शब्दों में विकास संवृध्दि का उप उत्पाद (बाई प्रोडक्ट) है। कहना न होगा कि उपरोक्त धारण तर्क एवं आर्थिक इतिहास से मिलने वाले तथ्यों एवं अनुभवों के विपरीत है। फिर भी देशी- विदेशी निहित स्वार्थ इसका ढिंढोरा पीट रहे हैं। प्रो। भादुडी़ के अनुसार इस प्रकार की भ्रामक धारणाओं के पीछे बडे़ क़ारोबारी हैं, जो पैसों के बल पर तथाकथित विशेषज्ञों को उन्हें सृजित करने लिए प्रेरित करते और मीडिया के जरिए मोहक शब्दों और तर्कों से सुसज्जित कर फैलाते है। इस क्रम में बडे़ क़ारोबारियों एवं राजनेताओं के बीच परस्पर गंठबंधन हो जाता है। यह अनायास नहीं है कि 2004 और 2009 के लोकसभा चुनावों के बीच करोड़पति उम्मीदवारों की संख्या 128 में बढ़कर 300 हो गई। उपर्युक्त भ्रामक धारण को प्रचारित करने में शिक्षित मध्यम वर्ग की भारी भूमिका होती है। आए दिन पत्र पत्रिकाओं एवं इलेक्ट्रोनिक मीडिया में वे उनके समर्थन में दलीले देते दिखते हैं।
नेहरू के जमाने में सर्वोपरि महत्व देश की एकता और अखंडता को दिया जाता था। आर्थिक संवृध्दि के परिणामस्वरूप लोगों की वास्तविक आय में बढो़तरी के साथ-साथ दलितों, पिछडे़ वर्गों, आदिवासियों तथा अन्य शोषित- पीडि़त व्यक्तियों पर विशेष ध्यान दिया जाए जिससे उन्हें रोजगार के पर्याप्त अवसर मिलें और शिक्षा एवं स्वास्थ्य संबंधी सुविधाएं प्राप्त हों। इसलिए आरक्षण पर जोर दिया गया। साथ ही पिछडे़ क्षेत्रों के आर्थिक विकास को तरजीह देने पर बल दिया गया। नेहरू का ख्याल था कि यदि समाज में व्याप्त असमानता को मिटाने तथा क्षेत्रीय असंतुलन को खत्म करने की ओर आर्थिक नीतियों की उन्मुख रखा जाय तो देश में एकता मजबूत तथा अलगाव वादी भावनाएं दूर होंगी। सभी नागरिक एवं क्षेत्रों का परस्पर जुडा़व बढेग़ा। स्पष्ट है कि राज्य की मजबूत सक्रिय भूमिका के बिना यह असंभव था। इसीलिए राजकीय क्षेत्र अर्थव्यवस्था में पनपा जो अधिकतम मुनाफे के लक्ष्य से ऊपर उठ कर काम करने लगा। बरौनी में तेल शोधक कारखाना और भिलाई में इस्पात कारखाना पिछडे़ इलाकों के विकास को सर्वोपरि रखकर लगाए गए।नरसिंह राव सरकार के जमाने से जो आर्थिक सुधार कार्यक्रम चालू किए गए हैं, उनके तहत राज्य की आर्थिक भूमिका सिकुड़ती जा रही है। नेहरू-इंदिरा काल में 3।5 प्रतिशत प्रतिवर्ष की तथा कथित हिन्दु दर के बावजूद रोजगार के अवसर दो प्रतिशत वार्षिक दर से बढ़े मगर 1990 के दशक के बाद आर्थिक संवृध्दि यानी (सकल राष्ट्रीय आय) की बढोतरी भले ही 7 प्रतिशत या उस से भी कम प्रति वर्ष बढे़ हैं। रोजगार के अवसर मिलने से आदमी का अपने पैरों पर खडा़ होने के साथ उसका राष्ट्र एवं समाज से जुडा़व बढ़ता है। वह यह महसूस करता है कि वह अपनी क्षमता और कौशल का इस्तेमाल राष्ट्र के हित में तथा उसके निर्माण के लिए कर रहा है। जब उसे रोजगार नहीं प्राप्त होता तब हीन भाव उस पर हावी होने लगता है।
नेहरू- इंदिरा काल में नियमित रोजगार के अवसर पैदा करने पर जोर था। परिणामस्वरूप संगठित क्षेत्र का विस्तार हो रहा था। मगर अब नजरिया बदल गया है। संगठित क्षेत्र में रोजगार के अवसर बढा़ने के बदले कम करने पर जोर है। कहना न होगा कि असंगठित क्षेत्र से ठेके पर या दैनिक मजदूरी देकर काम कराने में पूंजीपति फायदे में रहते हैं। मजदूरी की दर और काम के घंटों और स्थितियों के मामले में उनकी चलती है। श्रम कानून और श्रम विभाग आडे़ नहीं आते। किसी भी प्रकार के सवैतनिक अवकाश का प्रश्न ही नहीं उठता। यूनिफॉर्म तथा आवास की व्यवस्था नहीं करनी पडती। नेहरू के जमाने में घरेलू बाजार को ध्यान में रखकर ''क्या, कैसे और किनके लिए'' जैसे उत्पादन से जुडे प्रश्नों के उत्तर तलाशे जाते थे। आज स्थिति बदल गई है। अब उन्हीं वस्तुओं के उन्हीं प्रौद्योगिकियों से उन्हीं लोगों के लिए उत्पादन पर जोर है जिससे हमारा माल विदेशी बाजार में बिके। देश की अपनी जनता गौण हो गई है। हमारे अपने देशी बाजार के लिए जो वस्तुएं और सेवाएं उत्पन्न की जाती हैं उनको क्रयशक्ति सम्पन्न लोगों की ओर उन्मुख किया जाता है। यह अकारण नहीं है कि आम जन के लिए उपर्युक्त कपड़ों, जूतों आदि पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता। चूंकि हमारा उत्पादन मुख्यतया विदेशी बाजार तथा देशी सम्भ्रांत लोगों पर विशेष ध्यान रखता है इसलिए श्रम उत्पादकता बढा़ने और मजदूरी संबंधी लागत कम करने पर जोर दिया जाता है। दलीलें दी जाती हैं कि भूमंडलीकरण के वर्त्तमान युग में विदेशी प्रतिद्वंद्विता में इसके बिना ठहर पाना असंभव है। यही कारण है कि श्रमिकों को जब मन आए तब हटाने तथा उन्हें अनुशासित करने के नाम पर श्रम कानूनों में मालिकों के मनोनुकूल परिवर्तन करने की मांग तथा कथित विश्व प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों एवं विशेषज्ञों द्वारा लगातार उठाई जा रही है। याद होगा कि सेज की स्थापना करते समय श्रम कानूनों और श्रम संगठनों को उसकी सीमा रेखा से बाहर रखने की बात की गई थी क्योंकि तभी उनमें निवेश होगा और उनके मालों की उत्पादन लगात कम होगी तथा वे विश्व बाजार में टिक पाएंगे।चूंकि हमारे यहां संवृध्दि का सम्मोहन लगातार बढ़ता जा रहा है इसलिए विदेशी निवेश के साथ ही सेवाओं के क्षेत्र और उसके बाद विनिर्माण के क्षेत्र पर जोर है। कृषि क्षेत्र जहां हमारी दो तिहाई जनसंख्या लगी है, काफी उपेक्षित होती जा रही है। राजकीय कृषि निवेश में अपेक्षित वृध्दि नहीं हो रही है। सकल घरेलू उत्पादन में कृषि क्षेत्र का सापेक्ष हिस्सा निरंतर घटता जा रहा है। परिणाम स्वरूप कृषि क्षेत्र में लगे लोगों की प्रति व्यक्ति वास्तविक औसत आय नही बढ़ रही है। गांवों से शहरों की और लागतार पयालन हो रहा है। परिणामस्वरूप शहरों में मलिन बस्तियों का प्रसार होता जा रहा है। समाज में आय और संपदा की दृष्टि से विषमता बढ़ रही है। एक ओर जहां फोर्ब्स पत्रिकाद्वारा प्रकाशित विश्व के बडे़ धनवानों की सूची में भारतीय की संख्या तेजी से बढ़ती जा रही है, वहीं बीस रूपये या उससे कम की दैनिक आय पर गुजारा करने वालों की तदाद में भी तेजी से बढ़ोतरी हो रही है। हर जगह धनी-गरीब के बीच अंतर में वृध्दि हो रही है। आर्थिक विषमता में वृध्दि और धनाढ्यों द्वारा अपने वैभव के प्रदर्शन के कारण अपराध विभिन्न रूपों में प्रकट हो रहा है। अपहरण की संख्या में खासी वृध्दि हुई है। आए दिन शराब पीकर यातायात के नियमों की धज्जी उडा़ पटरियों पर चलने या सोने वालों की जान जाना आम बात है। पांच लाख रूपए की गाडी़ वाले पांच कौडी़ के आदमी की भला क्यों परवाह करें? ऐसा नहीं है कि धनाढ्य सुखी हैं। उनके मुहल्लों में बाडे़ लग रहे हैं। चौकीदार खडे़ कर वे हर समय अपनी सुरक्षा को लेकर चिंतित है। साफ है कि आर्थिक संवृध्दि से सबसे अधिक लाभान्वित होने वाले भी चिन्ता रहित सुखी जीवन व्यतीत नहीं कर पा रहे। फिर मधुमेह और ह्दय रोग में तेजी से बढोतरी आरामतलबी का परिणाम है।
समाज में आर्थिक विषम की बढोतरी का परिणाम माओवादी आंदोलन के विस्तार में तथा क्षेत्रीय असंतुलन में इजाफा का प्रकटीकरण तेलंगाना, विदर्भ गोरखालैंड आदि से जुडे़ अलगावादी आंदोलन में हो रहा है। पिछडे़ राज्यों से जीविका की खोज में आने वालों के प्रति महाराष्ट्र, असम, पंजाब आदि में जो भावनाएं देखी जा रही हैं, वे देश की अखंडता के लिए ठीक नहीं है।नई आर्थिक नीतियां नवउदारवादी चिंतन पर आधारित हैं जिनका वर्तमान गढ़ शिकागो है। अगले पखवाडे़ हम देखेंगे कि उनकी रूपरेखा क्या है और वह नेहरूवादी दृष्टिकोण को क्यों अपदस्थ कर रहा है।
समाप्त
**शीर्षक मैने परिवर्तित किया है
गुरुवार, 4 फ़रवरी 2010
क्या आप पुस्तक मेले जा रहे हैं?
साथियों
रविवार, 10 जनवरी 2010
यह रेखा ग़रीबों की गर्दन से गुज़रती है...
आजकल दिल्ली में है जे़रे बहस ये मुद्दुआ
उन्नीसवीं सदी के प्रसिद्ध समाजशास्त्री हरबर्ट स्पेंसर ने शायद सबसे पहली बार आधिकारिक तौर पर सामाजिक परिक्षेत्र में योग्यतम की उत्तरजीविता के मुहावरे का प्रयोग किया था। उनका मानना था कि ‘‘गरीब लोग आलसी होते हैं,काम नहीं करना चाहते और जो काम नहीं करना चाहते उन्हें खाने का भी कोई अधिकार नहीं है।‘‘ इसी आधार पर उनका तर्क था कि ‘‘गरीबी उन्मूलन जैसी योजनाओं के जरिये सरकार का हस्तक्षेप न्यूनतम होना चाहिये।‘‘ दरअसल, स्पेन्सर पूंजीवादी दुनिया के वैचारिक प्रतिनिधि के रूप में सामने आते हैं। बीसवीं सदी के आरंभिक वर्षों में रूस सहित कई देशों में समाजवादी शासन व्यवस्थाओं की स्थापना और पूरी दुनिया में समाजवाद की एक विचार के रूप में प्रतिष्ठा तथा तद्जन्य सामाजिक- राजनैतिक आलोड़नों के बरअक्स पूंजीवाद के लिये मानवीय चेहरा अपनाना आवश्यक हो गया था। फिर भी तीस के दशक की महामंदी के दौर में क्लासिकल अर्थव्यवस्था के ‘लैसेज फेयर‘े ( सरकार के हस्तक्षेप से पूर्णतः मुक्त बाजार आधारित अर्थव्यवस्था) सिद्धांत को तिलांजलि देकर कीन्स की राज्य हस्तक्षेप पर आधारित नीतियों का लागू किया जाना पूरी दुनिया की पूँजीवादी व्यवस्थाओं की मजबूरियों को प्रदर्शित करता था न कि उनकी प्रतिबद्धताओं और पक्षधरताओं में किसी परिवर्तन को। मंदी से उबरने के साथ ही जब कालांतर में पूंजीवाद ने खुद को फिर मजबूत किया तो इस सैद्धांतिक अवस्थिति में भी परिवर्तन हुआ और पाल ए सैमुएल्सन जैसे सिद्धांतकारों ने कीन्सीय तथा क्लासिकीय सिद्धांतो के घालमेल से नवक्लासिकीय सिंथेसिस की जिस अवधारणा को जन्म दिया था उसकी तार्किक परिणिति नव उदारवादी सिद्धांतों की पुनसर््थापना के रूप में होनी तय थी। भारत सहित दुनिया के अधिकांश हिस्से में मिश्रित अर्थव्यवस्था की नीति के तहत कल्याणकारी राज्य की जो अवधारणा प्रस्तुत की गई थी वह नब्बे के दशक में सोवियत संघ के विघटन के बाद लागू संरचनात्मक संयोजन वाली नई आर्थिक नीतियों से प्रतिस्थापित कर दी गयी। इन नीतियों के तहत गरीबों तथा वंचितों को दी जाने वाली तमाम सुविधायें धीरे-धीरे छीनी जाने लगीं। पश्चिमी देशों में यह प्रक्रिया पहले ही शुरु हो चुकी थी। उदाहरण के लिये मार्ग्रेट थैचर के शासनकाल में 1980 में पेंशन निर्धारण के लिये औसत आय का आधार समाप्त कर दिया गया और 1987-88 में बच्चों पर मिलने वाली सुविधायें। इसके परिणाम भी उसी दौर में आने लगे थे - 1079 से 1997 के बीच ब्रिटेन में अमीरों और गरीबों के बीच की खाई अभूतपूर्व रूप से बढ गयी!
भारत में भी इन नीतियों का प्रसार निश्चित तौर पर सरकारों की बदली प्रतिबद्धताओं का स्पष्ट प्रतिबिंबन था। इनके विस्तार में जाना तो इस लेख की विषयवस्तु के मद्देनजर विषयांतर होगा, लेकिन यह तो स्पष्ट है ही अपने आरंभिक दौर में कुछ तो मुक्ति आंदोलन और नई-नई मिली आजादी के हैंगओवर और कुछ देश-दुनिया में जारी आँदोलनों के दबाव में पूँजीवादी नीतियों को भी समाजवाद के मुलम्मे में पेश किये जाने का दौर नब्बे के दशक के आरंभ में ही इतिहास बन गया और साठ के दशक में अमेरिका में विकसित ‘रिसाव के सिद्धांत‘ को आधिकारिक तौर पर स्वीकार कर पूरा जोर निजी पूंजी के विकास पर लगाया गया। आय तथा वितरण की असमानता में विस्तार अब कोई चिंता का विषय नहीं रह गया बल्कि इसे संवृद्धि के लिये आवश्यक मान कर स्वीकार किया गया और गरीबों तथा जरूरतमंदों की सहायता के लिये दी जाने वाली राशि को ‘संसाधनों की बर्बादी‘ के रूप में निरूपित किया गया। ऐसे में यह अनपेक्षित नहीं था कि पिछले दिनों जब भारत में गरीबी रेखा पर बहस के दौरान तमाम अर्थशास्त्रियों ने वास्तविक रूप से गरीबों की संख्या आधिकारिक आकड़ों से कई गुना बताई तो तर्क दिये गये कि ‘‘अगर गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों की संख्या इतनी बढ़ जायेगी तो उनके कल्याण के लिये लागू योजनाओं में धन का अतिरिक्त आवण्टन करना होगा जिसके लिये सरकार के पास पैसा नहीं है (सक्सेना समिति को लिखे गये योजना आयोग के पत्र से)!‘‘ इसी सरकार के पास पिछले वर्ष पूँजीपतियों को मंदी से निपटने के नाम पर विभिन्न सहायता और छूट के रूप में करोड़ों रुपये देने के लिये पर्याप्त धन था!
गरीबी रेखा के रूप में गरीबी को निर्धारित करने का प्रस्ताव सबसे पहले 1957 में इण्डियन लेबर कांफ्रेंस के दौरान दिया गया था। उसी के बाद योजना आयोग ने एक वर्किंग ग्रुप बनाया था जिसने भारत के लिये ‘आवश्यक कैलोरी उपभोग‘ की अवधारणा पर आधारित गरीबी रेखा का प्रस्ताव किया। इसके तहत उस समय बीस रुपये प्रतिमाह को विभाजक रेखा के रूप में स्वीकृत किया गया। 1979 में योजना आयोग ने ही गरीबी को पुनर्परिभाषित करने करने के लिये एक टास्क फोर्स का गठन किया गया। लेकिन इसने भी मामूली फेरबदल के साथ मूलतः ‘आवश्यक कैलोरी उपभोग‘ की अवधारणा को ही आधार बनाया। 1973 की कीमतों को आधार बनाते हुए इसने ग्रामीण क्षेत्रों के लिये 49 रुपये प्रतिव्यक्ति प्रतिमाह तथा शहरी क्षेत्रों के लिये 57 रुपये की विभाजक रेखा तय की। मुद्रास्फीति के अनुसार इसमें समय-समय पर समायोजन किया गया और वर्तमान में यह शहरी क्षेत्रों के लिये 559 रुपये और गाँवों के लिये 368 रुपये है। योजना आयोग गरीबी रेखा के निर्धारण के लिये राष्ट्रीय तथा राज्य स्तर पर एन एस एस ओ के उपभोक्ता व्यय सर्वेक्षणों के आधार पर विभाजक रेखा तय करता है। 2004-2005 के लिये प्रोफेसर लकड़वाला की अध्यक्षता में 1997 में बने एक्स्पर्ट ग्रुप द्वारा की गयी अनुशंसा के आधार पर जो आंकड़े निकाले गये थे उनके अनुसार देश में उस समय गरीबों की कुल संख्या 28।3 प्रतिशत थी।
‘सेन्टर फार पालिसी आल्टरनेटिव‘ की एक रिपोर्ट में मोहन गुरुस्वामी और रोनाल्ड जोसेफ एब्राहम इस गरीबी रेखा को ‘भूखमरी रेखा‘ कहते हैं। कारण साफ है। इसके निर्धारण का इकलौता आधार आवश्यक कैलोरी उपभोग है। यानि इसके अनुसार वह आदमी गरीब नहीं है जो येन केन प्रकारेण दो जून अपना पेट भर ले और अगले दिन काम करने के लिये जिन्दा रहे। युनिसेफ स्वस्थ शरीर के लिये प्रोटीन, वसा, लवण, लौह और विटामिन जैसे तमाम अन्य तत्वों को जरूरी बताता है जिसके अभाव में मनुष्य कुपोषित रह जाता है तथा उसकी बौद्धिक व शारीरिक क्षमतायें प्रभावित होती हैं। लेकिन गरीबी रेखा तो केवल जिन्दा रहने के लिये जरूरी भोजन से आगे नहीं बढ़ती। इसके अलावा शायद व्यवस्था यह मानकर चलती है कि आबादी के इस हिस्से का स्वास्थ्य, शिक्षा, मनोरंजन, घर, साफ पानी, सैनिटेशन जैसी तमाम मूलभूत सुविधाओं पर तो कोई हक है ही नहीं । वैसे तो जिस ‘आवश्यक कैलोरी उपभोग‘ की बात की जाती है ( शहरों में 2100 तथा गांवों में 2400 कैलोरी प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन) वह भी दिन भर शारीरिक श्रम करने वालों के लिहाज से अपर्याप्त है। ‘इण्डियन काउंसिल आफ मेडिकल रिसर्च‘ के अनुसार भारी काम में लगे हुए पुरुषों को 3800 कैलोरी तथा महिलाओं को प्रतिदिन 2925 कैलोरी की आवश्यकता है। यही नहीं, अनाजों की कीमतों में तुलनात्मक वृद्धि व उपलब्धता में कमी, स्वास्थ्य तथा शिक्षा जैसे क्षेत्रों में सरकार की घटती भागीदारी, विस्थापन तथा तमाम ऐसी ही दूसरी परिघटनाओं की रोशनी में यह रेखा आर्थिक स्थिति के आधार पर समाज को जिन दो हिस्सों में बांटती है उसमें ऊपरी हिस्से के निचले आधारों में एक बहुत बड़ी आबादी भयावह गरीबी और वंचना का जीवन जीने के लिये मजबूर है और तमाम सरकारी योजनायें उसको लाभार्थियों की श्रेणी से उसके आधिकारिक तौर पर गरीब न होने के कारण बाहर कर देती है।
इसी वजह से भारत सरकार के गरीबी के आधिकारिक आंकड़े हमेशा से विवाद में रहे हैं। विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय तथा दूसरी स्वतंत्र संस्थाओं के अध्ययनों में देश में वास्तविक गरीबों की संख्या के आंकड़े सरकारी आंकड़ों से कहीं ज्यादा रहे हैं। अभी हाल ही में विश्व बैंक की ‘ग्लोबल इकोनामिक प्रास्पेक्ट्स फार 2009‘ नाम से जारी रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि 2015 में भारत की एक तिहाई आबादी बेहद गरीबी ( 1.25 डालर यानि लगभग 60 रुपये प्रतिदिन प्रतिव्यक्ति से भी कम आय) में गुजारा कर रही होगी। इस रिपोर्ट के अनुसार यह स्थिति सब सहारा देशों को छोड़कर पूरी दुनिया में सबसे बद्तर होगी। यही नहीं, यह रिपोर्ट भारत की तुलनात्मक स्थिति के लगातार बद्तर होते जाने की ओर भी इशारा करती है। इसके अनुसार जहां 1990 में भारत की स्थिति चीन से बेहतर थी वहीं 2005 में जहां चीन में गरीबों का प्रतिशत 15.9 रह गया, भारत में यह 41.6 थी।
इन्हीं विसंगतियों के मद्देनजर पिछले दिनों सरकार ने गरीबी रेखा के पुनर्निर्धारण के लिये जो नयी कवायदें शुरु कीं उन्होंने इस जिन्न को बोतल से बाहर निकाल दिया है। सबसे पहले आई असंगठित क्षेत्र के उद्यमों के लिये गठित राष्ट्रीय आयोग (अर्जुन सेनगुप्ता समिति) की रिपोर्ट ने देश में तहलका ही मचा दिया था। इसके अनुसार देश की 77 फीसदी आबादी 20 रुपये रोज से कम में गुजारा करती है। दो अंको वाली संवृद्धि दर और शाईनिंग इण्डिया के दौर में यह आंकड़ा सच्चाई के घिनौने चेहरे से नकाब खींचकर उतार देने वाला था। समिति ने असंगठित क्षेत्र के लिये दी जाने वाली सुविधायें इस आबादी तक पहुंचाने की सिफारिश की थी। लेकिन बात यहीं पर खत्म नहीं हुई। भारत सरकार द्वारा गरीबी रेखा के निर्धारण के लिये मानक तैयार करने के लिये ग्रामीण विकास मंत्रालय के पूर्व सचिव श्री एन के सक्सेना की अध्यक्षता में जो समिति बनाई थी उसके आंकड़े और भी चैंकाने वाले थे। इस समिति ने अगस्त-2009 में पेश अपनी रिपोर्ट में गरीबी रेखा से ऊपर रहने वालों के विभाजन के लिये पांच मानक सुझाये। जिसमें शहरी क्षेत्रों में न्यूनतम 1000 रुपये तथा ग्रामीण क्षेत्रों में न्यूनतम 700 रुपयों का उपभोग या पक्के घर या दो पहिया वाहन या मशीनीकृत कृषि उपकरणों जैसे ट्रैक्टर या जिले की औसत प्रतिव्यक्ति भू संपति का स्वामित्व। इस आधार पर समिति पर गरीबी रेखा के निर्धारण पर समिति ने पाया कि भारत की ग्रामीण जनसंख्या का कम से कम पचास फीसदी इसके नीचे जीवनयापन कर रहा है। सक्सेना समिति ने खाद्य मंत्रालय के आंकड़ों का भी जिक्र किया है जिसके अनुसार गांवों में 10।5 करोड़ बीपीएल राशन कार्ड हैं। अगर इसी को आधार बनाया जाय तो भी गांवों में गरीबी रेखा से नीचे रह रहे लोगों की संख्या लगभग 53 करोड़ ठहरती है जो कुल आबादी का लगभग पचास फीसदी है।
समिति का यह भी मानना कि जहां आधिकारिक तौर पर 1973-74 से 2004-05 के बीच गरीबी 56 प्रतिशत से घटकर 28 प्रतिशत हो गयी वहीं गरीबों की वास्तविक संख्या में कोई कमी नहीं आयी। अपने निष्कर्ष में वह कहते हैं कि ‘गरीब परिवारों की एक बहुत बड़ी संख्या गरीबी उन्मूलन के कार्यक्रमों से बहिष्कृत रही है और ये निश्चित रूप से सुदूर क्षेत्रों में रहने वाले बेजुबान लोग ही होंगे।‘लेकिन सरकार ने इस समिति की अनुशंसाओं को लागू करने से साफ इंकार कर दिया। योजना आयोग द्वारा समिति को लिखे गये पत्र का जिक्र पहले ही किया जा चुका है। ग्रामीण विकास मंत्री श्री सी पी जोशी ने इस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा था कि ‘सक्सेना समिति को गरीबों की गणना करने के लिये नहीं सिर्फ गरीबों की पहचान करने के लिये नयी प्रणाली विकसित करने के लिये कहा गया था।‘
इस दौरान योजना आयोग के एक सदस्य अभिजीत सेन ने तर्क दिया था कि गरीबों की गणना आवश्यक कैलोरी उपभोग की जगह आय के आधार की जानी जानी चाहिये। उनका यह भी मानना था कि मौजूदा मानकों के आधार पर गणना से शहरी क्षेत्रों में गरीबों की वास्तविक संख्या 64 फीसदी तथा गांवों में अस्सी फीसदी है।
इस संदर्भ में केन्द्र सरकार द्वारा प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार समिति के तत्कालीन अध्यक्ष सुरेश तेंदुलकर समिति को गरीबों की संख्या की गणना की जिम्मेदारी दी गयी थी। इस आयोग की पिछले महीने प्रस्तुत रिपोर्ट एक तरफ तो आवश्यक कैलोरी उपभोग वाली परिभाषा से आगे बढ़ने की कोशिश करती है तो दूसरी तरफ आंकड़ों में गरीबी कम रखने का दबाव भी इस पर साफ दिखाई देता है।
तेंदुलकर समिति के अनुसार 2004-05 में भारत की कुल आबादी का 37।2 फीसदी हिस्सा गरीबी रेखा के नीचे है। यह आंकड़ा योजना आयोग के 27.5 फीसदी से तो अधिक है लेकिन अभिजित सेन कमेटी या ऐसे अन्य अध्ययनों के निष्कर्षों से कम। हालांकि योजना आयोग से इसकी सीधी तुलना मानकों के परिवर्तन के कारण संभव नहीं है। आयोग के अनुसार बिहार तथा उड़ीसा में ग्रामीण गरीबी का प्रतिशत क्रमशः 55.7 तथा 60.8 है, उल्लेखनीय है कि सेन कमेटी के अनुसार इन दोनों प्रदेशों में ग्रामीण गरीबी का प्रतिशत 80 से अधिक था। आयोग ने ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी निर्धारण के लिये सीमारेखा 356.30 से बढ़ाकर 444.68 रुपये और शहरी क्षेत्रों में 538.60 रुपये से बढ़ाकर 578.80 की है। इस आधार पर दैनिक उपभोग की राशि शहरों में लगभग 19 रुपये और गांवों में लगभग 15 रुपये ठहरती है जो विश्वबैंक द्वारा तय की गयी अंतर्राष्ट्रीय गरीबी रेखा (20 रुपये) से कम है।
समिति ने आवश्यक कैलोरी वाले मानक को पूरी तरह समाप्त कर दिया है। इसकी जगह पर समिति का जोर शिक्षा, स्वास्थ्य तथा अन्य क्षेत्रों में होने वाले खर्चों को भोजन के साथ समायोजित कर ग्रामीण तथा शहरी विभाजन को समाप्त कर क्रय शक्ति समानता पर आधारित एक अखिल भारतीय गरीबी रेखा के निर्धारण पर है। यह अवधारणा के रूप में 1973-74 वाले मानकों से निश्चित रूप से बेहतर हैं जिसमें शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी तमाम जरूरतों को सरकार द्वारा मुफ्त उपलब्ध कराये जाने की मान्यता पर आधारित थे। लेकिन आवश्यक कैलोरी उपभोग वाली अवधारणा को पूरी तरह से खत्म किया जाना, खासतौर से तब, जबकि पिछले दिनों अंतर्राष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान के अंतर्राष्ट्रीय भूख सूचकांक में भारत को 66 वें पायदान पर रखा गया है और खाद्यान्न संकट, खाद्यान्नों की कीमतों में अभूतपूर्व तेजी तथा कुपोषण की समस्या लगातार गहराती गयी है, इसकी नीयत पर सवाल उठाता ही है। इस दौर में पेश की गयी इस अवधारणा का अर्थ होगा कि गरीबी रेखा से वास्तविक गरीबों का बहुलांश बाहर रह जायेगा। यहां पर यह भी बता देना आवश्यक है कि कई हालिया अध्ययन बताते हैं कि सबसे गरीब दस फीसदी लोगों का कैलोरी उपभोग सबसे अमीर दस फीसदी लोगों के कैलोरी उपभोग से कम है जबकि यह तो सर्वज्ञात तथ्य है कि जहां अमीर आदमी तमाम दूसरी पोषक चीजों का उपभोग करता है वहीं गरीबों का वह तबका अपनी लगभग पूरी आय भोजन पर ही खर्च करता है।
दरअसल मानकों के न्यायपूर्ण निर्धारण के लिये जहां एक तरफ आवश्यक कैलोरी उपभोग की अवधारणा को इण्डियन काउंसिल आफ मेडिकल रिसर्च की पूर्व में उद्धृत अनुशंसा के आधार पर और ऊंचे स्तर पर ले जाते हुए इसमें पोषण के लिये आवश्यक अन्य तत्वों के साथ समायोजित किया जाना चाहिये था और इसके साथ एक सम्मानजनक जीवनस्तर के लिये आवश्यक शिक्षा, स्वास्थ्य, मनोरंजन, घर, पीने का साफ पानी, सैनिटेशन जैसी तमाम चीजों से जोड़कर देखा जाना चाहिये था। इस संदर्भ में सेंटर फार आल्टरनेटिव पालिसी रिसर्च द्वारा मूलभूत आवश्यकताओं की कीमत पर आधारित गरीबी की विभाजक रेखा ज्यादा न्यायपूर्ण लगती है जिसमें 2004-2005 के लिये अखिल भारतीय स्तर पर 840 रुपये प्रतिव्यक्ति प्रतिमाह का निर्धारण किया गया है । इसके साथ ही एन के सक्सेना द्वारा सुझाये गये मानक भी सच के ज्यादा करीब हैं।
साथ ही तेंदुलकर समिति गरीबी निर्धारण के आधारों में विस्तार के दावे के बावजूद गरीबी की बहुआयामी प्रकृति के बारे में कोई पहल नहीं करती। पहले की तमाम रिपोर्टों की तरह यह भी गरीबी को महज आर्थिक समस्या की तरह निरूपित करती है। इसके सामाजिक-सांस्कृतिक आयामों को समझे बिना इसे जड़मूल से समाप्त किया ही नहीं जा सकता। जाति, लिंग, शारीरिक अक्षमता, क्षेत्रीय असंतुलन जैसे तमाम कारक भारत में गरीबी को निर्धारित करते हैं।
दरअसल वस्तुस्थिति यह है कि गरीबी के इन तकनीकी निर्धारणों के मूल में उस बड़ी हकीकत पर परदा डालना है कि इन सब कवायदों के मूल में भयावह तरीके से विस्तारित होती आर्थिक असमानता की खाई के सवाल को दबाये रखना है। नई आर्थिक नीतियों से लाभान्वित होने वाले छोटे से तबके के प्रति अपनी स्पष्ट प्रतिबद्धता और सामाजार्थिक समानता के उद्देश्य को पूर्ण तिलांजलि दे चुकीं शासन व्यवस्थाओं के लिये गरीबी उन्मूलन की योजनायें एक तरफ तो जनाक्रोशों को दबाये रखने वाले ‘सेफ्टी वाल्व‘ हैं तो दूसरी तरफ हर पांच साल पर होने वाले चुनावों के मद्देनजर एक ‘आवश्यक फिजूलखर्ची‘। ऐसे में यह स्वाभाविक ही है कि गरीबी को एक असमाधेय समस्या के रूप में निरूपित कर नरेगा जैसी कुछेक योजनाओं द्वारा थोड़ा-बहुत लाभ एक सीमित आबादी तक पहुंचाया जाता है लेकिन भूमि सुधार, आय तथा व्यय पर करों द्वारा नियंत्रण तथा पुनर्वितरण जैसे बड़े और समस्या के जड़ पर प्रहार करने वाले उपाय सरकारों की कार्यसूची में शामिल ही नहीं होते। इस नई कवायद के पीछे भी येन केन प्रकारेण आधिकारिक रूप से गरीबों की संख्या को न्यूनतम स्तर पर रखना है जिससे कि प्रस्तावित राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून में सब्सीडियों पर नियंत्रण रखा जा सके। खाद्य एवं लोक वितरण मंत्रालय द्वारा राज्य सरकारों को प्रेषित इस कानून के अवधारणा पत्र में साफ किया गया है कि गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों की संख्या के निर्धारण का अधिकार अनन्य रूप से केन्द्र सरकारों के पास ही रहेगा। राज्य सरकारों को टारगेटेड बीपीएल के अंतर्गत लाभान्वित होने वाले परिवारों की संख्या पर नियंत्रण रखने की ताकीद की गयी है। यह कानून इस सूची की सालाना समीक्षा को आवश्यक बना देगा। अपनी ड्राफ्ट गाइडलाइन में यह पहले ही चेता चुका था कि ‘अगर राज्य सरकारों पर बीपीएल सूची बनाने का काम छोड़ दिया गया तो भारत में गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों की संख्या कुल ग्रामीण आबादी की 80-85 फीसदी तक हो जाने की आशंका है।‘ साफ है कि ऐसी नीयत के साथ बनने वाले खाद्य सुरक्षा कानून का हश्र भी कुछ दिनों पहले बने शिक्षा के अधिकार कानून जैसा ही होना है।
गरीबी रेखा के रूप में आय या आवश्यक कैलोरी उपभोग के किसी एक खास आंकड़े को विभाजक बना देना रोज बदलती कीमतों और रोजगार की अनिश्चितता की रोशनी में दरअसल एक भद्दा मजाक है। जब दाल 90 रुपये, चावल 20 रुपये, आटा 17 रुपये किलो बिक रहा है, डाक्टरों की फीस आसमान छू रही है, दवायें इतनी मंहगी हैं और बसों तथा रेलों से कार्यस्थल तक पहुंचने में ही 10-15 रुपये खर्च हो जाते हैं तो दिल्ली में बैठकर यह तय करना कि 15 या 20 रुपये रोज में एक आदमी अपना खर्च चला सकता है और उससे अधिक पाने वालों को सहायता देने की कोई जरूरत नहीं है उस सरकार की प्रतिबद्धता को स्पष्ट कर देता है जो पिछले साल पिछले बजट में पूंजीपतियों को सहायता और करों में छूट के रूप में 4,18,095 करोड़ रुपयों की सौगात दे चुकी है।
शनिवार, 19 दिसंबर 2009
आधुनिक अर्थशास्त्र का पिता
पाल एन्थनी सेमुएल्सन
(15 मई 191 से 13 दिसंबर 2009)
सेमुएल्सन नवकीन्सवाद के प्रणेताओं में से एक थे और नवक्लासिकीय अर्थशास्त्र के विकास में उनकी भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रही। उन्होने नवक्लासिकीय तथा नवकीन्सीय सिद्धांतों को आपस में जोडकर जिस सैद्धांतिक व्यव्स्था को जन्म दिया था उसे नवक्लासिकीय सिंथेसिस कहा जाता है। कहना न होगा की पूंजीवादी अर्थशास्त्र का वर्तमान परिदृश्य इसी सैद्धांतिक अवस्थिति से संचालित है। इसीलिये आर्थिक इतिहासकार रेन्डल ने उन्हें ‘आधुनिक अर्थशास्त्र का पिता‘ कहा था। उनकी मृत्यु के बाद प्रकाशित एक आलेख में अमर्त्य सेन ने उन्हें ‘आधुनिक अर्थशास्त्र का सृजनकर्ता और पद्धति निर्माता‘ कहा है।
वह पहले अर्थशास्त्री ने जिन्होंने आर्थिक विवेचनाओं में गणितीय तथा भौतिकी सूत्रों का व्यापक प्रयोग किया।इस पद्धति का प्रमुख इस्तेमाल उन्होंने अर्थव्यवस्था के गतिमान तथा स्थैतिक संतुलनों के समेकन से वास्तविक संतुलन की स्थितियों के लिये गणितीय माडल प्रस्तुत करने में किया। इस प्रणाली ने सामान्य संतुलन सिद्धांत के विकास में बहुमूल्य योगदान दिया। ‘उपभोक्ता वरीयता सिद्धांत‘ में उनके द्वारा प्रस्तावित ‘प्रकट वरीयता सिद्धांत‘, कल्याण अर्थशास्त्र में किसी आर्थिक निर्णय के सामाजिक कल्याण पर प्रभाव को नापने के लिये दिये गये उनके ‘लिन्ढाल-सेमुएल्सन-बावेन स्थितियों के सिद्धांत‘, लोक वित्त के क्षेत्र में लोक तथा निजी वस्तुओं के आदर्श निर्धारण के लिये प्रस्तुत माडल और अंतर्राष्ट्रीय अर्थशास्त्र में उनके द्वारा विकसित दो ट्रेड माडल आधुनिक अर्थशास्त्र को दिये गये उनके तमाम अवदानों में सबसे उल्लेखनीय हैं। वह नोबल पुरस्कार पाने वाले पहले अमेरिकी अर्थशास्त्री थे 1970 में उन्हें सम्मानित करते हुए नोबेल पुरस्कार समिति ने कहा था कि, ‘‘सैमुएल्सन का सबसे बडा अवदान यही है कि उन्होंने अपने किसी भी अन्य समकालीन अर्थशास्त्री की तुलना में आर्थिक विज्ञान के सामान्य विवेचनात्मक एवं विश्लेशणात्मक स्तर के उन्नयन में अधिक योगदान दिया है। उन्होंने वस्तुतः आर्थिक सिद्धांत के एक बडे हिस्से का पुनर्लेखन किया है।‘‘
दरअसल, महामंदी और समाजवादी ब्लाक के उभरने के साथ-साथ पूंजीवादी जगत में कीन्सीय सिद्धांतों के पूरी तरह अप्रभावी हो जाने चलते फैली निराशा और सैद्धांतिक शून्य के माहौल में सैमुएल्सन के गणितीय सिद्धांतो के जरिये प्रस्तुत माडलों और नवक्लासिकीय सिंथेसिस द्वारा राज्य के देखरेख में पूंजीपतियों द्वारा बाजार के खेल का प्रस्ताव पूंजीवाद के लिये संजीवनी जैसा था। यही वजह थी कि न सिर्फ उन्हें पूंजीवादी जगत द्वारा हाथोंहाथ लिया गया अपितु अमेरिकी व्यवस्था ने भी उन्हें भरपूर मान-सम्मान दिया। वह न केवल अमेरीकी वित्त मंत्रालय के महत्वपूर्ण पदों पर रहे अपितु जान एफ कैनेडी और जानसन के आर्थिक सलाहकार भी रहे। आर्थिक उदारीकरण का नया युग उनके सैद्धांतिक प्रस्ताव के अनुरुप ही था यही कारण है कि भारत में उदारीकरण की शुरुआत होने पर प्रसन्नता व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा था कि - चलो अन्ततः भारत ने भी आर्थिक संवृद्धि का रास्ता खोज लिया।