( नन्दीग्राम परिघटना के तुरन्त बाद लिखा यह आलेख इतिहासबोध में प्रकाशित हुआ था)
14 मार्च 2007 हमारे समकालीन इतिहास का एक निर्णायक मोड़ है । हम चाहें न चाहें, समर्थन करें या विरोध, नंदीग्राम में इस दिन घटित घटनाक्रम ने नई आर्थिक नीतियों के समर्थकों तथा विरोधियों दोनों ही के लिये, एक सर्वथा नवीन परिदृष्य निर्मित कर दिया है । अपने तमाम अंर्तविरोधों और विचलनों के बावजूद इसके पहले तक सीमित अर्थांे में ही सही, संसदीय वाम व्यापक स्तर पर भूमण्डलीकरण तथा आर्थिक उदारीकरण का विरोधी माना जाता था । सेज़ के प्रश्न पर भी राजस्थान, उड़ीसा सहित देश के तमाम हिस्सों में विरोध का सबसे मुखर स्वर इसी का सुनाई दे रहा था । संप्रग सरकार के समर्थक वामदल संसद के भीतर और बाहर दोनों जगह आर्थिक मुद्दों पर दबाव बनाने में सफल हो रहे थे। विनिवेष की प्रक्रिया तो लगभग रुक ही गई थी, पेटेण्ट के मुद्दे पर भी माशेलकर कमीशन की अनुशसायें स्वीकार नहीं हो सकीं और इसी वजह से वामपंथियों के प्रति अपनी स्पष्ट घृणा के बावजूद मीडिया तथा दक्षिणपंथी दल कुछ घटिया आक्षेपों तथा रटे रटाये सूत्रों से अधिक कुछ भी कह पाने में सफल नहीं हो पा रहे थे । हालांकि इसका अर्थ यह भी नहीं है कि यह वामपंथी खेमा वाकई आमजन की पीड़ाआंे की आवाज बन गया था । अनेक मुद्दों, ख़ास तौर पर किसानों की आत्महत्याओं के संदर्भ में कृषि नीति पर पुर्नविचार हेतु यह सरकार पर कोई दबाव बनाता नहीं दिख रहा था । लेकिन कुल मिलाकर आर्थिक नीतियों के संदर्भ में यह ज़रूर कहा जा सकता है कि नन्दीग्राम के पहले संसदीय वामपंथ की भूमिका संसद के भीतर एक प्रभावी प्रेशर ग्रुप की तो थी ही... पर नन्दीग्राम ने एक झटके में पूरा परिदृश्य बदल दिया ।
नंदीग्राम की घटना पर इतना कुछ लिखा जा चुका है कि अब उसका विस्तृत विवरण देना कतई ज़रूरी नहीं । पूरे देष ने उन लौहमर्षक घटनाओं की विभिन्न समाचार चैनलों पर ष्लाईव देखा । ह़तों समाचार पत्र-पत्रिकायें सूक्ष्मतम विवरणों और चित्रों से भरे रहे । राजनैतिक क्षेत्र के हर कोने, धुर दक्षिणपंथियों से लेकर नक्सलवादी संगठनों तक से उग्रतम प्रतिक्रियायें आई । बुद्धिजीवी वर्ग भी अछूता न रहा, जहां पूंजीवादी लिक्खाडों के लिये यह वाम के अधोपतन के सेलिबे्रषन का समय था वही क्रा्रंतिकारी वाम के लिये वर्षांे से लगाये जा रहे अपने आरोपों के सत्य साबित होने का ऐतिहासिक अवसर । सुमित सरकार, तनिका सरकार जैसे प्रतिबद्ध लेखकों के लिये यह मोहभंग की स्थिति थी तो महाष्वेता देवी जैसी लोगों के लिये दुःख एवं विक्षोभ की पराकाष्ठा और इन सबके बीच जनता का एक बड़ा तबका, जो वामपंथी तो नहीं था, लेकिन देष के अलग-अलग हिस्से में इन्हीं दलों के नेतृत्व में सेज़ तथा दूसरे मुद्दों पर संघर्षरत था या फिर इन संघर्षो से सहानुभूति रखता था, अवसन्न रह गया। यह निरा मोहभंग नहीं था-आस्था के अंतिम अवलम्ब का धाराषायी होना था....और ऐसे में इस घटना का प्रभाव भी स्थानीय नगरपालिका चुनाव तक सीमित नहीं रहा। नन्दीग्राम में सेज़ और इसके बहाने आर्थिक उदारवाद के आड़ में ग़रीबों को मुक्त बाज़ार के रहमोकरम पर छोड़ पूंजीपतियों को संरक्षण देने वाली नीतियों के खिलाफ़ देश भर में चल रहे स्वतःस्फूर्त आंदोलनों के पांव के नीचे से ज़मीन सरका दी ।
अगर नंदीग्राम के ठीक पहले के राजनैतिक परिदृश्य को देखें तो पूरे देश में सेज़ के विरूद्ध एक माहौल सा बनता दिखाई दे रहा था । उत्तर प्रदेश में रिलांयस को ज़मीन दिये जाने के विरूद्व किसानों का संघर्ष उफान पर था (विष्वनाथ प्रताप सिंह तथा राज बब्बर के अवसरवादी नेतृत्व के धोखे से यह आंदोलन भले असफल रहा लेकिन प्रदेष में मुलायम सरकार की कब्र खोदने में इसकी भूमिका को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता), बंबई के पास रिलांयस की प्रस्तावित योजना के खिलाफ संघर्ष धीरे-धीरे उग्र हो रहा था और इसके नेता विदर्भ के किसानों की तरह आत्महत्या करने की जगह आखिरी सांस तक संघर्ष की बात कर रहे थे, उड़ीसा में पास्को परियोजना से प्रभावित आदिवासियों के विरोध प्रदर्षनों पर गोलीबारी की घटना से पूरा आदिवासी समाज ही उद्वेलित नही था बल्कि भाजपा तथा बीजद का गठबंधन भी प्रभावित हुआ था, राजस्थान में सेज़ तथा पानी के मुद्दे पर बड़े आंदोलन उठ खड़े हुये थे, (श्रीगंगानगर में तो पुलिस फायरिंग में कई किसानों के मारे जाने के बाद स्थिति बेहद तनावपूर्ण हो गई थी) और नरेन्द्र मोदी के कुख्यात अभयारण्य में भी इन्हीं मुद्दों पर असंतोष के बादल साफ़ दिखाई दे रहे थे । अरसे बाद किसान तथा ज़मीन एक बार फिर मुख्य एजेण्डे पर थे और जनपक्षधर बुद्धिजीवियों की भी इसमें स्पष्ट सहभागिता थी। वाम तथा प्रगतिषील-जनवादी पत्र-पत्रिकाओं में ही नहीं मुख्यधारा की इण्डिया टुडे और आउटलुक जैसी पत्रिकाओं और जनसत्ता, इण्डियन एक्सप्रेस, नवभारत टाईम्स से लेकर क्षेत्रीय अखबारों तक में इन मुद्दों पर प्रमुखता से चर्चा हो रही थी और सरकार पर दबाव भी स्पष्ट परिलक्षित हो रहा था । भाजपा और कांग्रेस को छोड़कर लगभग सभी प्रमुख राजनैतिक दल, अपने वोट बैंक आधारों की चिन्ता में ही सही, इन मुद्दों पर धीरे-धीरे प्रखर हो रहे थे । राजद के विष्वस्त सहयोगी शरद यादव अगर खाद्य असुरक्षा का प्रश्न उठा रहे थे तो संप्रग के सबसे वाचाल सिपहसालार लालू प्रसाद तथा रघुवंश नारायण सिंह कृषि योग्य भूमि के औद्योगिक उपयोग का विरोध कर रहे थे । ज़मीनों के उचित मुआवजे़ के सवाल पर तो कृषि मंत्री शरद पवार और जयपाल रेड्डी भी सवाल उठा रहे थे... और इन सबका असर भी सतह पर दिखने लगा था । सेज़ पर पुनर्विचार तथा नयी परियोजनाओं पर लगी रोक इसका स्पष्ट प्रतिविंबन थी.....लेकिन यह सारा किस्सा नंदीग्राम से पहले का है ।
नंदीग्राम ने सारे समीकरण पलट दिये । जहां एक तरफ विरोधियों की तलवारें धार-विहीन हो गई वही समर्थकों की बाछें खिल गई । पीछे हटते जा रहे सेज़ के पैराकारों को जैसे अचानक अमोघ अस्त्र मिल गया । अब सेज कहीं नहीं था। अखबारों के पन्नों पर, पत्रिकाओं के कालमों में, समाचार चैनलों के रूपहले पर्दों पर बस नंदीग्राम था। रातोंरात पूरा पंूजीवादी मीडिया सेज़ का विरोधी हो गया गाजियाबाद, भुवनेष्वर, बंबई, श्रीगंगानगर, हरियाणा सब नेपथ्य में चले गये । अब सेज़ और नंदीग्राम, नंदीग्राम और बुद्धदेव भट्टाचार्य, बुद्धदेव भट्टाचार्य और वामपंथ सब पर्यायवाची थे । सेज़ के घोषित समर्थक नन्दीग्राम के किसानों के लिये आंसू बहा रहे थे । सेज के प्रथम स्वीकार के समय मंत्रिमण्डल की सदस्य रही ममता बनर्जी सेज़ विरोध का प्रतीक बन चुकी थी। परिणाम वही हुआ जिसका डर था- नंदीग्राम के कुहासे में जनता के प्रतिरोधों की चिंगारी दब गई और इन नीतियों के लागू होने की प्रक्रिया अबाध रूप से आरंभ हो गई । विरोध के नाम पर रह गया सिर्फ नंदीग्राम । हरियाणा में पर्यावरणवादियों के विरोध के बावजूद रिलांयस की परियोजना मंजूर हो गई, नवी मुंबई में बाज़ार से आधे से भी कम मुआवजे़ के बदले हजारों एकड़ जमीन मुकेष अंबानी को दे दी गई, मैसूर में नारायणमूर्ति की परियोजना को हरी झण्डी मिल गई और गुजरात में बिना किसी मुआवजे के कच्छ का समुद्रतट मछुआरों से छीन लिया गया (प्रसंगवष ये सारे मछुआरे मुसलमान थे) .... और यह सब ऐसे हुआ कि बस मक्खन से छूरी गुजर गई। कहीं कोई विरोध नहीं। वामपंथी कार्यकर्ताओं तथा बुद्धिजीवियों की जुबान पर ताला बनकर लटक गया नंदीग्राम । राजनैतिक दलों के लिये अपने वोट बैंक को संतुष्ट करने वाला लालीपाप बन गया नंदीग्राम और केन्द्र सरकार के हाथ में पहली बार वामपंथियों को साधने का एक मजबूत डंडा बन गया नंदीग्राम ।
लेकिन इस संदर्भ में एक तीसरा पक्ष भी था । जिसकी भूमिका बेहद महत्वपूर्ण है- क्रांतिकारी तथा सीपीएम विरोधी संसदीय वाम । यहां यह साफ़ कर देना ज़रूरी है कि स्वयं को वाम घोषित करने जैसे आधार को छोड़ दें तो इन्हें एक साथ रखने का कोई कारण नहीं है । कार्यनीति के आधार पर इसके तीन प्रमुख घटक बनाये जा सकते हैं पहला सरकार में शामिल अन्य वामपंथी दल जैसे सीपीआई, आर।एस.पी. वगैरह दूसरा नक्सलबाड़ी से प्रेरणा लेने वाले संसदीय तथा संसदविरोधी दल जैसे सीपीआई (एम.एल.) और सीपीआई (माओवादी) तथा तीसरा एसयूसीआई ।
लम्बे समय से सीपीएम की सरपरस्ती में सत्ता सूख भोग रहे वाममोर्चे के घटकों का विरोध उनके रीढ़विहीन चरित्र के चलते हद से हद रस्मी ही कहा जा सकता है । हालांकि जिस तरह ए।बी।बद्र्वन ने देष के कई शहरों में जाकर सेज पर विरोध दर्ज कराया है, कहीं न कही सीपीएम के बड़े भाई वाले मनमानी रवैये से उपजा विक्षोभ साफ दिखाई दे रहा है लेकिन अपना अलग रास्ता चुनने या सेज़ के विरूद्ध व्यापक जनांदोलन खड़ा करने की इच्छाशक्ति अभी भी दिखाई नहीं देती ।
जहां तक नक्सलबाड़ी की विरासत मानने वाले संगठनों का सवाल है तो नंदीग्राम में माकपा सरकार की जनविरोधी साजिश का सबसे पहले विरोध करने वाला यही खेमा था, लेकिन मीडिया के बनाये कथानक में इसे बड़ी आसानी से दरकिनार कर दिया गया । लेकिन अपनी सारी ईमानदारी के बावजूद इनका विरोध भी कारगर शक्ल लेता दिखाई नहीं देता । सीपीआई एम।एल। (विनोद मिश्रा ग्रुप) का तो प्रमुख सरोकार नंदीग्राम को नक्सलबारी दो साबित करना तथा ‘‘हम तो पहले से कह रहे थे’’ वाली शैली में सीपीएम को धिक्कारना ही लग रहा था । जितनी षिद्दत से यह संगठन 1857 को जनक्रांति साबित करने में लगा है उसका दसांष भी किसानों और मज़दूरों के व्यापक विरोध की संगठित तथा संचालित करने में लगाता तो परिदृष्य कुछ और होता । माओवादी दल भी नवजनवादी क्रांति की रूमानियत में कुछ इस क़दर डूबे हैं कि बाजार बनती जा रही दुनिया में जंगल तलाषे जा रहे हैं । जितना बलिदान इस दल ने किया है और जो दुर्दमनीय क्रांतिकारी स्पिरिट दिखाई है वह स्तुत्य है, परंतु वह समय आ गया है कि अपनी रणनीतियों पर पुर्नविचार किया जाये । ख़ैर, लब्बोलुआब यह कि यह घटक भी किसानों के संघर्ष को एक ठोस दिशा देने के बजाय संसदीय वामपंथ को गरियाने तथा उस पर अतिरिक्त अंक अर्जित करने में ही लगा रहा ।
लेकिन सबसे खराब भूमिका रही एस।यू.सी.आई की । तेलंगाना से भी पहले महाबोध पा चुके शिवदास घोष का यह संगठन अपने अंध माकपा विरोध में सीधे- सीधे ममता बनर्जी के साथ ही खड़ा नहीं हुआ अपितु लाईमलाइट के लिये हर उचित अनुचित हरकत की। सवाल यह नहीं है कि माकपा का विरोध सही है कि नहीं। निष्चित तौर पर नंदीग्राम के विरोध के अलावा और कुछ नहीं किया जा सकता। लेकिन असली सवाल यह है कि जब देष भर में सेज़ के खिलाफ किसान संघर्षरत थे उस समय खामोष रहे लोगों के नंदीग्राम पर हो हल्ला मचाने के पीछे असली मंतव्य क्या थे ? क्या यह सच नहीं कि ऐसा करके वे दरअसल पूंजीवादी मीडिया के कुचक्र के ही सहभागी बन रहे थे? और हमारे पास यह मानने का ठोस कारण भी है-नंदीग्राम के बाहर की इनकी खामोशी ।
इसीलिये, नंदीग्राम, इतना सीधा नहीं है । इसकी परतें हैं-बेहद महीन, बेहद उलझी। लेकिन सवाल सिर्फ उन्हें खोलने का नहीं है-सवाल है नंदीग्राम के मोड़ से आगे बढ़ने का। नंगे हो चुके चेहरों को इतिहास की गर्द के हवाले कर नई तैयारी के साथ एक लम्बी और फैसलाकुन जद्दोजे़हद का हिस्सा बनने का। यही एक सच है जो नंदीग्राम से पहले भी था और अब भी है ।
1 टिप्पणी:
itihasbodh(allahabad) k sath hi idhar ek samgri LAMHI me v dekha....
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